तिल खाएं किन्तु तिलमिलायें नहीं

तिल खाएं किन्तु तिलमिलायें नहीं

तिल खाएं किन्तु तिलमिलायें नहीं


राकेश अचल

मकर संक्रांति यानि तिल-गुड़ से बने पकवानों को खाने का दिन. इस दिन अगर सूर्य भगवान उत्तरायण होते हैं तो तिलपट्टी,गजक,रेवड़ी और तिलप्रधान दूसरे पकवान खाकर हमें भी उत्तरदायी होना चाहिए .उत्तरायण होने का एक मतलब उत्तरदायी होना भी होता है .सूर्य जैसा उत्तरदायी दुनिया में कोई दूसरा है नहीं. बिना थके,रुके,झुके सूर्य दुनिया को ऊर्जा और प्रकाश बांटता रहता है .

संक्रांति की प्रतीक्षा हर भारतीय पूरे साल करता है .सोचता है कि सूर्य की ग्रहदशा बदलते ही शायद उसके भी दिन फिर जाएँ. विविध संस्कृतियों के इस देश में संक्रांति से जुड़े अनेक त्यौहार हैं ,सबके नाम अलग-अलग हैं लेकिन मकसद एक ही है कि जीवन में उल्लास,ऊर्जा और परिवर्तन   का श्रीगणेश हो .जिस इलाके का जैसा मौसम होता है,वहां ये संधिकाल उस तरीके से मनाया जाता है. पंजाब वाले यदि होली की तरह आग जलाकर उसके इर्दगिर्द नाचते -गाते हैं तो उत्तर  के लोग नदियों में डुबकियां लगते हैं. पूर्व और दक्षिण के लोगों के लिए भी ये पर्व रंग-रंगीला होता है.हर घर की रसोई महकने लगती है .

मकर सक्रांति में मकर की अपनी भूमिका है .ये एक ग्रह भी है और एक विशाल जलचर भी .दोनों का गुण एक जैसा है .दोनों ग्रसते हैं लेकिन मुक्त भी करते हैं हमारे यहां तो मकर से जुडी एक से बढ़कर एक दंतकथाएं   हैं .रोचक और रहस्यमय पढ़ते  जाइये  और सीखते जाइये .हम भारतीय ऐसा करते भी हैं लेकिन हमारे देश की राजनीति इन पर्वों से न कोई सीख लेती है और न बदलती है .राजनीति को संक्रमण से मुक्ति दिलाने का कोई अभिनव प्रयास एक लम्बे आरसे से हुआ नहीं .

संक्रांति की रेल बेपटरी न हो इसलिए मै राजनीति को छोड़ वापस तिल-गुड़ पर आता हूँ. मुझे याद है कि बचपन में जब हमारा जीवन गांवों से कटा नहीं था तब मकर संक्रांति पर तिल-गुड़ से इतने पकवान बनते थे कि हमारे नाश्ते की प्लेट छोटी पड़ने लगती थी .बुंदेलखंड के गांवों में संक्रांति पर खड़ी मूंग ,ज्वार के फूले [पॉपकार्न ].लाइ,चने की दाल ,बेसन के सेवों और खड़ी तथा कुटी तिल के लड्डुओं के साथ ही ज्वार के आटे और तिल-गुड़ से बने फ्रायड केक बना करते थे.जिन्हें हम तिल मनियाँ कहा करते थे .पूरा घर तिल और गुड़ की खुशबू से महकता था .इतने सारे लड्डू और अन्य पकवान कहते-कहते भले ही जबड़े दुखने लगते थे लेकिन मन नहीं भरता था .

शहरों में गृहणियां इतने ठठकर्म नहीं करतीं ,इसलिए शहरों में गजक,रेवड़ी के साथ ही तिल और मावा से बनी मिठाइयों की भरमार रहती है .लेकिन रसोई शहरों में भी महकती है भले ही गांवों के मुकाबले कम महकती है .संक्रांति के दिन पानी में तिल डालकर स्नान करने की अनिवार्यता अब कम होती जा रही है. कड़कड़ाती सर्दी में जो बच्चे स्नान से कन्नी काटते थे उन्हें ये कहकर डराया जाता था की आज स्नान न करने वाले को अगले जन्म में गदर्भ बनना पड़ता है. हम बच्चे तब नदी के पानी से उठती भाप के पानी में छपाक से कूद जाते थे और कांपते हुए बाहर निकलते थे ,लेकिन साल भर के पाप नदी में धो आते थे. तब हमारी सब नदियाँ गंगा जैसी पतिति पावन मानी जाती थीं.बीते पचास साल में अब ये तमाम सुरसरि माने जाने वाली नदियाँ मर चुकी हैं .अब तो नल की टोंटी और शावर ही सहारा है

संक्रांति के सहारे गुड़-तिल के बने उत्पाद  अब देश में ही नहीं विदेशों में भी उपलब्ध होने लगे हैं यानि ये संधिकाल एक आर्थिक आधार भी देता है .मध्यप्रदेश में मुरैना की गजक खाड़ी के देशों में बहुत लोकप्रिय है. मुझे तो बीते साल अमेरिका तक में ये गजक मिल गयी थी .यानि संस्कृति से जुड़े खाद्य पदार्थ आपका पीछा नहीं छोड़ते .ये रिश्ता ही है जो हमें अपनी जड़ों से जोड़कर रखता है .

संधिकाल में तिल-गुड़ के अलावा एक और चीज है जो हमेशा हमारे साथ रहती है .वो है खिचड़ी.खिचड़ी यानि दाल और चावलों का अद्भुद मेल .खिचड़ी सांस्कृति का भी प्रतिनिधित्व   करती है और समन्वय का भी .सहकार भी खिचड़ी की आत्मा है .खिचड़ी सभी को पसंद है. आम जनता को भी. .जनता ने तो देश में खिचड़ी सरकारों को भी अवसर दिया लेकिन खिचड़ी सरकारें सुपाच्य बनने के बजाय अवसरवादी साबित हुईं यद्यपि खिचड़ी हर तरह के स्वास्थ्य के लिए एक महत्वपूर्ण चीज है .दुर्भाग्य है की हम खाने -पहनने में ही नहीं संस्कृति,साहित्य,कला और राजनीति में भी खिचड़ी के महत्व को विस्मृत करते जा रहे हैं .

तिल-गुड़ और खिचड़ी के बाद संक्रांति का तीसरा महत्वपूर्ण खाद्य है मंगौड़े .ये अलग-अलग दालों और तरीकों से बनाये जाते हैं .कहीं मूंग की दाल इस्तेमाल होती है तो कहीं अरहर की.कुछ लोग मिश्रत दालों से मंगौड़े बनाते हैं. इनमें अदरक,हरी मिर्च और धनियां अलग से बोलती है.गर्मागर्म ,कुरकुरे मगौड़े मुंह  का जायका दो गुना कर देते हैं .मंगौड़ों का साथ देने के लिए पकौड़ियाँ,भजिया  भी बनाई जाती है किन्तु मगौड़ों का मुकाबला नहीं. भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी तो मंगौड़ों के दीवाने थे. वे जब भी अपने गृहनगर ग्वालियर आते दौलतगंज में फुटपाथ पर चूल्हा रखकर मंगौड़े बनाने वाली चाची के यहां मंगौड़े खाने अवश्य जाते थे .मंगौड़ों का साथ निभाने के लिए तरह -तरह की चटनियाँ भी बनाई ही जातीं है.  

देश का सौभाग्य है कि इस बार इस संधिकाल में यहां पांच राज्यों में विधानसभा के चुनावों की प्रक्रिया भी आरम्भ हो गयी है .ये अवसर है जब राजनीति को भी उत्तरदायी बनाया जा सकता है. इन पांच राज्यों के मतदाता देश की राजनीति को संक्रमण से बाहर निकालने की पहल कर सकते हैं .राजनीति का सूर्य भी उत्तरायण हो तो यहां भी नयी ऊर्जा का संचार हो .मुमकिन है कि चुनाव के बाद इन पांच राज्यों में से अधिकाँश में खिचड़ी संस्कृति का प्रतिनिधित्व   करते हुए खिचड़ी सरकारें बने,लेकिन हम सब प्रार्थना करते हैं कि चुनाव निष्पक्ष और शांतिपूर्ण   तरीके से हों .तो एक बार फिर सभी को मकर संक्रांति पर्व की बहुत-बहुत शुभकामनाएं .मीठा-मीठा खाएं और मीठा-मीठा बोलें.ध्यान रहे कि तिल खाएं किन्तु तिलमिलायें नहीं .

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