यूपी के चुनाव में जातियों की महत्वत्ता 

यूपी के चुनाव में जातियों की महत्वत्ता 

            -- जितेन्द्र सिंह पत्रकार 
 
 
चुनाव चाहे लोकसभा का हो या विधानसभा का जैसे ही उत्तर प्रदेश का नाम आता है वहां हर दल विभिन्न जातियों के समीकरण बनाने में जुट जाते हैं। और यही कारण है कि आम आदमी पार्टी जैसी पार्टी जो हर राज्य में बड़े ही जोर शोर से उतरती है उत्तर प्रदेश में आकर शून्य पर सिमट जाती है। कांग्रेस की सत्ता जाने के बाद उत्तर प्रदेश समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के ही इर्द-गिर्द घूमता रहा लेकिन सवर्ण समाज को एक जुट करके बीच बीच में भारतीय जनता पार्टी भी सत्ता में आती रही। उत्तर प्रदेश जनसंख्या की दृष्टि से देश का सबसे बड़ा राज्य है और सबसे ज्यादा विधानसभा और लोकसभा की सीटें उत्तर प्रदेश में ही हैं। जब लोकसभा चुनाव आते हैं तो उत्तर प्रदेश की महत्ता राजनैतिक दलों के लिए काफी बढ़ जाती है। कहा भी जाता है कि केंद्र की सत्ता का रास्ता उत्तर प्रदेश से ही होकर गुजरता है।
 
                     प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के वाराणसी लोकसभा क्षेत्र को ऐसे ही अचानक नहीं चुना। नरेंद्र मोदी गुजरात के रहने वाले हैं और गुजरात ही उनकी जन्म भूमि और कर्म भूमि रही है वह तीन बार वहां मुख्यमंत्री रह चुके हैं यदि वह चाहते तो गुजरात में कोई भी एक लोकसभा क्षेत्र चुन सकते थे। लेकिन एक रणनीति के तहत ही उन्होंने उत्तर प्रदेश को चुना। उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातियों का बिखराव इस क़दर हो चुका है कि यहां पर बिना जातिगत समीकरण के चुनाव जीत पाना असंभव है। भारतीय जनता पार्टी भी इससे अछूती नहीं रही है। सबसे पहले यहां पिछड़ों की सियासत समाजवादी पार्टी ने शुरू की थी। उसके बाद दलितों को लेकर बहुजन समाज पार्टी आगे बढ़ी नतीजा यह हुआ की सवर्ण भारतीय जनता पार्टी की तरफ आकर्षित हो गया। उसके बाद पिछड़ी जातियों में जो उच्च जातियां थी वह भी भारतीय जनता पार्टी के साथ हो गईं।
 
                   समाजवादी पार्टी के पास केवल यादव और बहुजन समाज पार्टी के पास दलित वोट रह गया अब इन दोनों पार्टियों के लिए मुस्लिम वोट निर्णायक साबित होने लगा। जब कि भारतीय जनता पार्टी ने अन्य जातियों का वोट पाने के लिए अपने साथ उत्तर प्रदेश की छोटी छोटी पार्टियों को जोड़ना शुरू कर दिया। जिसमें आज भाजपा समर्थित एनडीए में अपना दल सोनेलाल, निषाद पार्टी, सुभासपा, राष्ट्रीय लोकदल जैसी पार्टियां हैं जो भारतीय जनता पार्टी के कैडर वोट पाकर अच्छा प्रदर्शन भी करतीं हैं। इस तरह भारतीय जनता पार्टी ने छोटे-छोटे दलों को अपने साथ मिलाकर जातिगत समीकरण साधा है और आज वह उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी पार्टी के रुप में चुनौती पेश कर रही है। इधर समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी ने पिछले लोकसभा चुनाव में एक प्रयोग करके देखा था कि यदि दलित, यादव और मुस्लिम वोट एक हो जाए तो कामयाबी मिल सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका मायावती न सिर्फ दलित वोट को सपा में ट्रांसफर कराने में नाकामयाब रही बल्कि उनका जनाधार भी घट गया और यह गठबंधन असफल हो गया।
 
                   एक समय जब सपा निरंतर उत्तर प्रदेश में कामयाब हो रही थीं तब ब्रह्मण समाज ठिठक रहा था कि वह किस तरफ जाए जिससे की समाजवादी पार्टी की सरकार को हटाया जा सके। मायावती राजनीति की बड़ी खिलाड़ी हैं उन्होंने ब्राह्मण समाज की नब्ज को पकड़ लिया और फिर सतीश चन्द्र मिश्रा को आगे लाकर एक समीकरण तैयार किया जिसमें उन्होंने दलित, ब्रह्मण और मुस्लिम समाज को एकजुट करके चुनाव लड़ा और वह बहुमत की सरकार में आ गईं। यह मायावती की सोशल इंजीनियरिंग का फार्मूला था जिसमें अच्छे अच्छे विरोधी परास्त हो गये थे। लेकिन जैसे ही भारतीय जनता पार्टी को मजबूती प्रदान हुई ब्राह्मण भारतीय जनता पार्टी की तरफ शिफ्ट हो गया। ब्राह्मण वर्ग सिर्फ समाजवादी पार्टी की सरकार को हटाना चाहता था जो कि उसने कर दिखाया।
 
                       वर्तमान में उत्तर प्रदेश की राजनीति का स्वरूप इस तरह से बन गया है कि जिसने जातिगत समीकरण नहीं साध पाया वह कामयाब नही हो सकता। अभी कुछ ऐसी बात भी चली थी कि कहीं कहीं ठाकुर मतदाता भारतीय जनता पार्टी से रुष्ट है वो भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश में। क्षत्रिय नेताओं का आरोप था कि भारतीय जनता पार्टी ने क्षत्रियों के साथ नाइंसाफी की है और उनको संख्या के हिसाब से सीट बंटवारे में जगह नहीं मिली और इसका फायदा बहुजन समाज पार्टी ने उठाना शुरू कर दिया पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कई क्षत्रियों को टिकट देकर चुनावी मैदान में उतार दिया। जिससे कि भारतीय जनता पार्टी के सामने मुश्किलें खड़ी हो गईं। क्यों क्षत्रीय और ब्रह्मण वोट भारतीय जनता पार्टी का कोर वोट माना जाता है। और निश्चित ही इसका फायदा समाजवादी पार्टी को होता दिखाई दे रहा है। 
 
                भारतीय जनता पार्टी ने उत्तर प्रदेश में अपना स्थान बड़े ही समीकरण के साथ बना पाया है। एक तरफ धार्मिक मुद्दों को लेकर वह जनता के सामने आई है। चूंकि अयोध्या, काशी और मथुरा उत्तर प्रदेश में ही हैं इसलिए धार्मिक और हिंदुत्व वादी मुद्दों को लेकर भारतीय जनता पार्टी ने अपनी बात जनता तक पहुंचाने में पूरी कोशिश की है। वही प्रदेश की छोटी छोटी राजनैतिक पार्टियों को अपने साथ जोड़कर अपना बेस बहुत ही मजबूत कर लिया है जिसको हिला पाना विपक्षी दलों के बस में नहीं होता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस का उत्तर प्रदेश में कोई भी जनाधार नहीं बचा है। कांग्रेस के नेता भी दूसरे दलों की तरफ रुख कर गये हैं। यहां मुकाबला अब केवल भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच ही दिखाई दे रहा है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी केवल वोट काटने के रोल में ही दिखाई दे रही है। असली लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और समाजवादी पार्टी के बीच में ही दिखाई दे रही है।
                    
 

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