पित्रोदा जी, देश जानना चाहता है—क्या चीन वाकई मित्र है?
सैम पित्रोदा जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ घोषणा कर दी है—"चीन भारत का शत्रु नहीं है।" अब जब इतनी विलक्षण, प्रबुद्ध, प्रभावशाली और उच्चकोटि की हस्ती ने यह निर्णय सुना दिया, तो हमें अपने अनुभवों और ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रश्नचिह्न लगाना ही होगा। गलवान घाटी में जो कुछ भी हुआ, वह निश्चय ही ‘मैत्रीपूर्ण संवाद’ की एक अनोखी शैली रही होगी, जिसमें सैनिकों ने कूटनीतिक सौहार्द दिखाते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। अरुणाचल और लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ भी संभवतः ‘संस्कृति और परंपराओं के आदान-प्रदान’ का ही एक अभिनव प्रयास था, जहां मित्रता को नए आयाम देने के लिए टैंक और लड़ाकू विमानों का उपयोग किया गया। और 1962 का युद्ध? अरे, वह तो मात्र दो पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा ‘सीमाओं की कलात्मक पुनर्कल्पना’ का एक प्रयोग था, जिसमें चीन ने भारतीय भूभाग पर अधिकार जमाकर यह प्रदर्शित किया कि पड़ोसी होने का अर्थ क्या होता है! यह सब, शायद हमारे ऐतिहासिक तथ्यों की गलत व्याख्या का परिणाम है, क्योंकि जब एक महान विभूति कह रही है कि चीन शत्रु नहीं है, तो अवश्य ही हमें अपने ज्ञान, समझ और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा पर पुनर्विचार करना चाहिए!
यदि यही तर्क स्वीकार्य है, तो अगला उद्घोषणा शायद यह हो कि पाकिस्तान भी हमारा शत्रु नहीं, बल्कि मात्र एक ‘शरारती नटखट पड़ोसी’ है, जो कभी-कभी नटखट हरकतें कर बैठता है! संभवतः भविष्य में इतिहास की किताबों में यह भी लिखा जाए कि 26/11 का जघन्य आतंकी हमला ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय परंपरा के तहत हुआ था, और पुलवामा में हमारे वीर जवानों का बलिदान मात्र ‘आपसी सौहार्द’ की एक दुर्भाग्यपूर्ण भूल-चूक थी, जिसे अनदेखा कर देना चाहिए। मगर प्रश्न यह है कि यदि चीन और पाकिस्तान हमारे ‘सखा’ हैं, तो फिर नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका के साथ सतत कूटनीतिक तनाव क्यों बना रहता है? क्यों हमारी सद्भावना उन्हीं देशों के लिए आरक्षित है जो हमारी संप्रभुता को चुनौती देते हैं, हमारे भूभाग पर अतिक्रमण करते हैं और हमारे वीर सैनिकों के बलिदान का उपहास उड़ाते हैं? क्या यह ‘मैत्री’ का नया प्रतिमान है, जिसमें राष्ट्र के सम्मान को तिलांजलि देकर उन ताकतों को मित्र माना जाता है जो भारत की अखंडता पर निरंतर प्रहार करते हैं? यदि हाँ, तो फिर शत्रुता और राष्ट्रहित की परिभाषा पर पुनर्विचार करना ही उचित होगा!
अब एक नया युग प्रारंभ हो चुका है—‘शत्रु के प्रति सहानुभूति और नागरिकों के प्रति कठोरता’ का। हमारी सेना सीमाओं पर अपने प्राणों की आहुति दे, लेकिन देश के भीतर यदि कोई युवा शासन से प्रश्न पूछने का साहस कर ले, तो वह तुरंत ‘देशद्रोही’ करार दे दिया जाता है। यह कैसा राष्ट्रवाद है, जो देश के सम्मान और सुरक्षा से नहीं, बल्कि व्यापारिक और राजनीतिक समीकरणों से संचालित होता है? क्या अब देशभक्ति की परिभाषा भी सत्ता की सुविधा अनुसार बदल दी जाएगी? शायद अब विद्यालयों में ‘राष्ट्रप्रेम’ की शिक्षा को परिवर्तित कर ‘राजनीतिक अनुकूलता’ के नए पाठ पढ़ाए जाने चाहिए, ताकि आने वाली पीढ़ियाँ यह समझ सकें कि असली देशभक्त वह नहीं जो राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान दे, बल्कि वह है जो सत्ता के रुख के अनुसार अपने विचारों को मोड़ना जानता हो! यह विचारणीय है कि जब भारत अपनी सुरक्षा को सुदृढ़ करने हेतु कोई ठोस कदम उठाता है, तब यही तथाकथित बुद्धिजीवी उसे ‘युद्धोन्माद’ का जामा पहना देते हैं। यदि हमारी सेना सीमा पर सतर्क रहे, तो इसे ‘अनावश्यक आक्रामकता’ का तमगा दे दिया जाता है, किंतु जब चीन अपने सैन्य विस्तार और सामरिक वर्चस्व को बढ़ाता है, तो उसे ‘वैश्विक शक्ति संतुलन’ का गौरवशाली नाम दे दिया जाता है। विडंबना यह है कि राष्ट्रभक्ति का यह नया सिद्धांत केवल भारत पर ही लागू होता है, शत्रु देशों पर नहीं।
पित्रोदा जी, क्षमा करें, परंतु देश की जागरूक जनता आपकी इस ‘नवाचारपूर्ण परिभाषा’ को सहज स्वीकार नहीं कर सकती। उन्हें अपने पुरखों और शहीदों ने यही सिखाया है कि जो हमारी सीमाओं पर अतिक्रमण करे, हमारे वीरों के रक्त से धरती को लाल करे, वही हमारा शत्रु है। परंतु अब प्रतीत होता है कि हमें इस मूल सत्य को छोड़कर ‘राजनीतिक सुविधा’ और ‘राजनयिक स्वार्थ’ के तराजू पर तोलकर यह निर्धारित करना होगा कि कौन मित्र है और कौन शत्रु! क्या यही राष्ट्रनीति का नवीन संस्करण है? यदि हाँ, तो फिर यह राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि अवसरवादिता की पराकाष्ठा है!
जब अगली बार युद्ध की लपटें आसमान तक उठें, बंदूकों की गड़गड़ाहट में किसी वीर सपूत की अंतिम चीख दब जाए, या किसी मां की आंखों में तिरंगे में लिपटे बेटे के शव को देख आंसू पत्थर बन जाएं—तो ठहरकर एक बार जरूर सोचिएगा। यह धधकता ज्वालामुखी क्या वास्तव में राष्ट्रभक्ति की वेदी पर जलाया गया पवित्र अग्निकुंड है, या फिर यह सिर्फ वैश्विक व्यापार नीति के मोहरों की बिसात पर बिछी कोई रक्तरंजित चाल? क्योंकि आज देशभक्ति केवल वीरगाथाओं में सिमटकर नहीं रह गई, बल्कि वह सत्ता के गलियारों में लिखी उन नीतियों की मोहताज बन गई है, जो किसी सैनिक की शहादत से अधिक, व्यापारिक हितों और राजनीतिक समीकरणों को साधने में व्यस्त हैं। क्या यह युद्ध वास्तव में मातृभूमि की अस्मिता की रक्षा हेतु लड़ा जा रहा है, या यह महज किसी आर्थिक और कूटनीतिक स्वार्थ का खूनी तांडव है? इसलिए, जब भी कोई रणबांकुरा अपने प्राणों की आहुति दे, जब भी किसी मां की कोख सूनी हो, जब भी किसी बहन की राखी इंतजार में रह जाए—तब केवल शोक और गर्व में मत डूबिए, बल्कि गहरी दृष्टि से देखिए कि यह बलिदान वाकई मातृभूमि की रक्षा के लिए है, या फिर किसी छिपे हुए षड्यंत्र की अनकही पटकथा का एक और अध्याय? क्योंकि आज राष्ट्रभक्ति की कसौटी रणभूमि में बहे रक्त से नहीं, बल्कि सत्ता की चौखट पर लिखे निर्णयों से तय हो रही है।
अब समय आ गया है कि राष्ट्र की जागरूक जनता अपनी दृष्टि को तीव्र करे और भली-भांति समझे कि कौन वास्तव में देशहित में चिंतन कर रहा है और कौन राष्ट्रवाद का मुखौटा ओढ़कर अपने स्वार्थपूर्ण एजेंडे को साधने में जुटा है। इतिहास साक्षी है कि जब तक जनमानस निर्भीक होकर सत्ता से प्रश्न करता रहेगा, तब तक सत्य को कुचला नहीं जा सकेगा और राष्ट्र की अस्मिता पर कोई आंच नहीं आएगी। अब हमें यह निर्णायक फैसला करना होगा—क्या हम अपने स्वाभिमान, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए अडिग रहेंगे, या फिर ‘वैश्विक नागरिकता’ के भ्रामक मायाजाल में फंसकर अपने गौरवशाली अस्तित्व को तिलांजलि दे देंगे? और हां, पित्रोदा जी, अगला बयान देने से पहले कृपया यह भी स्पष्ट कर दीजिए कि ‘देशद्रोह’ की नई परिभाषा क्या होगी—ताकि राष्ट्र के जागरूक नागरिक यह जान सकें कि अब सत्य कहना, निष्पक्ष चिंतन करना और सत्ता से प्रश्न पूछना, इनमें से क्या अगली साजिश के तहत अपराध घोषित किया जाने वाला है!
प्रो. आरके जैन "अरिजीत", बड़वानी (मप्र)

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