पित्रोदा जी, देश जानना चाहता है—क्या चीन वाकई मित्र है?

पित्रोदा जी, देश जानना चाहता है—क्या चीन वाकई मित्र है?

सैम पित्रोदा जी ने बड़े आत्मविश्वास के साथ घोषणा कर दी है—"चीन भारत का शत्रु नहीं है।" अब जब इतनी विलक्षणप्रबुद्धप्रभावशाली और उच्चकोटि की हस्ती ने यह निर्णय सुना दियातो हमें अपने अनुभवों और ऐतिहासिक तथ्यों पर प्रश्नचिह्न लगाना ही होगा। गलवान घाटी में जो कुछ भी हुआवह निश्चय ही ‘मैत्रीपूर्ण संवाद’ की एक अनोखी शैली रही होगीजिसमें सैनिकों ने कूटनीतिक सौहार्द दिखाते हुए अपने प्राणों की आहुति दी। अरुणाचल और लद्दाख में चीनी सेना की घुसपैठ भी संभवतः ‘संस्कृति और परंपराओं के आदान-प्रदान’ का ही एक अभिनव प्रयास थाजहां मित्रता को नए आयाम देने के लिए टैंक और लड़ाकू विमानों का उपयोग किया गया। और 1962 का युद्धअरेवह तो मात्र दो पड़ोसी राष्ट्रों द्वारा ‘सीमाओं की कलात्मक पुनर्कल्पना’ का एक प्रयोग थाजिसमें चीन ने भारतीय भूभाग पर अधिकार जमाकर यह प्रदर्शित किया कि पड़ोसी होने का अर्थ क्या होता है! यह सबशायद हमारे ऐतिहासिक तथ्यों की गलत व्याख्या का परिणाम हैक्योंकि जब एक महान विभूति कह रही है कि चीन शत्रु नहीं हैतो अवश्य ही हमें अपने ज्ञानसमझ और राष्ट्रभक्ति की परिभाषा पर पुनर्विचार करना चाहिए!

दरअसलपित्रोदा जी जैसे महान चिंतकों की विशिष्टता यही होती है कि वे धरातल की सच्चाई से कोसों दूर रहते हैं और अपनी विचारधारा को राजनीतिक समीकरणों की प्रयोगशाला में गढ़ते हैं। जब सीमा पर हमारे वीर जवान अपने प्राणों की आहुति देकर घुसपैठ रोक रहे होते हैंतब पित्रोदा जी अपने वातानुकूलित कक्ष में बैठकर ‘वैश्विक नागरिकता’ की कल्पनाओं में खोए रहते हैं। शायद उनके लिए राष्ट्रभक्ति का मोल अब सिर्फ़ ट्विटर पर ‘चीनी स्मार्टफोन’ से किए गए दिखावटी पोस्टों में ही सिमटकर रह गया है। मगर असली प्रश्न यह है कि यदि चीन हमारा शत्रु नहीं हैतो फिर शत्रु है कौनक्या वह किसानजो अपने अधिकारों के लिए सड़कों पर उतरता हैया वह छात्रजो शिक्षा और रोजगार की माँग करता हैअथवा वह आम नागरिकजो सरकार से प्रश्न पूछने का दुस्साहस करता हैविडंबना देखिएइन लोगों को तो बिना किसी संकोच के ‘राष्ट्रविरोधी’ करार दे दिया जाता हैलेकिन चीन के लिए ‘सहानुभूति’ और ‘भाईचारे’ का विशेष आरक्षण रखा जाता है! ऐसा प्रतीत होता है कि देशभक्ति की परिभाषाएँ अब सुविधा और स्वार्थ के तराजू पर तौली जाने लगी हैं।

यदि यही तर्क स्वीकार्य हैतो अगला उद्घोषणा शायद यह हो कि पाकिस्तान भी हमारा शत्रु नहींबल्कि मात्र एक ‘शरारती नटखट पड़ोसी’ हैजो कभी-कभी नटखट हरकतें कर बैठता है! संभवतः भविष्य में इतिहास की किताबों में यह भी लिखा जाए कि 26/11 का जघन्य आतंकी हमला ‘अतिथि देवो भव’ की भारतीय परंपरा के तहत हुआ थाऔर पुलवामा में हमारे वीर जवानों का बलिदान मात्र ‘आपसी सौहार्द’ की एक दुर्भाग्यपूर्ण भूल-चूक थीजिसे अनदेखा कर देना चाहिए। मगर प्रश्न यह है कि यदि चीन और पाकिस्तान हमारे ‘सखा’ हैंतो फिर नेपालबांग्लादेश और श्रीलंका के साथ सतत कूटनीतिक तनाव क्यों बना रहता हैक्यों हमारी सद्भावना उन्हीं देशों के लिए आरक्षित है जो हमारी संप्रभुता को चुनौती देते हैंहमारे भूभाग पर अतिक्रमण करते हैं और हमारे वीर सैनिकों के बलिदान का उपहास उड़ाते हैंक्या यह ‘मैत्री’ का नया प्रतिमान हैजिसमें राष्ट्र के सम्मान को तिलांजलि देकर उन ताकतों को मित्र माना जाता है जो भारत की अखंडता पर निरंतर प्रहार करते हैंयदि हाँतो फिर शत्रुता और राष्ट्रहित की परिभाषा पर पुनर्विचार करना ही उचित होगा!

अब एक नया युग प्रारंभ हो चुका है—‘शत्रु के प्रति सहानुभूति और नागरिकों के प्रति कठोरता’ का। हमारी सेना सीमाओं पर अपने प्राणों की आहुति देलेकिन देश के भीतर यदि कोई युवा शासन से प्रश्न पूछने का साहस कर लेतो वह तुरंत ‘देशद्रोही’ करार दे दिया जाता है। यह कैसा राष्ट्रवाद हैजो देश के सम्मान और सुरक्षा से नहींबल्कि व्यापारिक और राजनीतिक समीकरणों से संचालित होता हैक्या अब देशभक्ति की परिभाषा भी सत्ता की सुविधा अनुसार बदल दी जाएगीशायद अब विद्यालयों में ‘राष्ट्रप्रेम’ की शिक्षा को परिवर्तित कर ‘राजनीतिक अनुकूलता’ के नए पाठ पढ़ाए जाने चाहिएताकि आने वाली पीढ़ियाँ यह समझ सकें कि असली देशभक्त वह नहीं जो राष्ट्र की रक्षा के लिए बलिदान देबल्कि वह है जो सत्ता के रुख के अनुसार अपने विचारों को मोड़ना जानता हो! यह विचारणीय है कि जब भारत अपनी सुरक्षा को सुदृढ़ करने हेतु कोई ठोस कदम उठाता हैतब यही तथाकथित बुद्धिजीवी उसे ‘युद्धोन्माद’ का जामा पहना देते हैं। यदि हमारी सेना सीमा पर सतर्क रहेतो इसे ‘अनावश्यक आक्रामकता’ का तमगा दे दिया जाता हैकिंतु जब चीन अपने सैन्य विस्तार और सामरिक वर्चस्व को बढ़ाता हैतो उसे ‘वैश्विक शक्ति संतुलन’ का गौरवशाली नाम दे दिया जाता है। विडंबना यह है कि राष्ट्रभक्ति का यह नया सिद्धांत केवल भारत पर ही लागू होता हैशत्रु देशों पर नहीं।

भारत में बढ़ते प्रदूषण का कारण क्या वास्तव में हमारा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है? Read More भारत में बढ़ते प्रदूषण का कारण क्या वास्तव में हमारा गैर जिम्मेदाराना व्यवहार है?

पित्रोदा जीक्षमा करेंपरंतु देश की जागरूक जनता आपकी इस ‘नवाचारपूर्ण परिभाषा’ को सहज स्वीकार नहीं कर सकती। उन्हें अपने पुरखों और शहीदों ने यही सिखाया है कि जो हमारी सीमाओं पर अतिक्रमण करेहमारे वीरों के रक्त से धरती को लाल करेवही हमारा शत्रु है। परंतु अब प्रतीत होता है कि हमें इस मूल सत्य को छोड़कर ‘राजनीतिक सुविधा’ और ‘राजनयिक स्वार्थ’ के तराजू पर तोलकर यह निर्धारित करना होगा कि कौन मित्र है और कौन शत्रु! क्या यही राष्ट्रनीति का नवीन संस्करण हैयदि हाँतो फिर यह राष्ट्रवाद नहींबल्कि अवसरवादिता की पराकाष्ठा है!

मेक्सिको का शॉक: भारत के निर्यात पर टैरिफ़ की आग Read More मेक्सिको का शॉक: भारत के निर्यात पर टैरिफ़ की आग

जब अगली बार युद्ध की लपटें आसमान तक उठेंबंदूकों की गड़गड़ाहट में किसी वीर सपूत की अंतिम चीख दब जाएया किसी मां की आंखों में तिरंगे में लिपटे बेटे के शव को देख आंसू पत्थर बन जाएं—तो ठहरकर एक बार जरूर सोचिएगा। यह धधकता ज्वालामुखी क्या वास्तव में राष्ट्रभक्ति की वेदी पर जलाया गया पवित्र अग्निकुंड हैया फिर यह सिर्फ वैश्विक व्यापार नीति के मोहरों की बिसात पर बिछी कोई रक्तरंजित चालक्योंकि आज देशभक्ति केवल वीरगाथाओं में सिमटकर नहीं रह गईबल्कि वह सत्ता के गलियारों में लिखी उन नीतियों की मोहताज बन गई हैजो किसी सैनिक की शहादत से अधिकव्यापारिक हितों और राजनीतिक समीकरणों को साधने में व्यस्त हैं। क्या यह युद्ध वास्तव में मातृभूमि की अस्मिता की रक्षा हेतु लड़ा जा रहा हैया यह महज किसी आर्थिक और कूटनीतिक स्वार्थ का खूनी तांडव हैइसलिएजब भी कोई रणबांकुरा अपने प्राणों की आहुति देजब भी किसी मां की कोख सूनी होजब भी किसी बहन की राखी इंतजार में रह जाए—तब केवल शोक और गर्व में मत डूबिएबल्कि गहरी दृष्टि से देखिए कि यह बलिदान वाकई मातृभूमि की रक्षा के लिए हैया फिर किसी छिपे हुए षड्यंत्र की अनकही पटकथा का एक और अध्यायक्योंकि आज राष्ट्रभक्ति की कसौटी रणभूमि में बहे रक्त से नहींबल्कि सत्ता की चौखट पर लिखे निर्णयों से तय हो रही है।

मानव अधिकार दिवस : सभ्यता के नैतिक विवेक का दर्पण Read More मानव अधिकार दिवस : सभ्यता के नैतिक विवेक का दर्पण

अब समय आ गया है कि राष्ट्र की जागरूक जनता अपनी दृष्टि को तीव्र करे और भली-भांति समझे कि कौन वास्तव में देशहित में चिंतन कर रहा है और कौन राष्ट्रवाद का मुखौटा ओढ़कर अपने स्वार्थपूर्ण एजेंडे को साधने में जुटा है। इतिहास साक्षी है कि जब तक जनमानस निर्भीक होकर सत्ता से प्रश्न करता रहेगातब तक सत्य को कुचला नहीं जा सकेगा और राष्ट्र की अस्मिता पर कोई आंच नहीं आएगी। अब हमें यह निर्णायक फैसला करना होगा—क्या हम अपने स्वाभिमानसंस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता की रक्षा के लिए अडिग रहेंगेया फिर ‘वैश्विक नागरिकता’ के भ्रामक मायाजाल में फंसकर अपने गौरवशाली अस्तित्व को तिलांजलि दे देंगेऔर हांपित्रोदा जीअगला बयान देने से पहले कृपया यह भी स्पष्ट कर दीजिए कि ‘देशद्रोह’ की नई परिभाषा क्या होगी—ताकि राष्ट्र के जागरूक नागरिक यह जान सकें कि अब सत्य कहनानिष्पक्ष चिंतन करना और सत्ता से प्रश्न पूछनाइनमें से क्या अगली साजिश के तहत अपराध घोषित किया जाने वाला है!

 

प्रो. आरके जैन "अरिजीत"बड़वानी (मप्र)

About The Author

स्वतंत्र प्रभात मीडिया परिवार को आपके सहयोग की आवश्यकता है ।

Post Comment

Comment List

आपका शहर

अंतर्राष्ट्रीय

Online Channel