संजीव-नी।

संजीव-नी।

कविता,
 
प्यारी मां तेरी जैसी l स्वरूपा नारी सर्वत्र पूजनीय)
पुरुषों को स्त्रियों का कृतज्ञ होना चाहियेl 
 
हर किसी की माँ हो, माँ हो मेरी जैसी,
हर नारी लगती प्यारी मुझे मां जैसीl
 
रोटी के इंतजाम में गई मां की बाट जोहता,
लौटती हर औरत लगती शाम उसे मां जैसी।
 
मां मेरी सलोनी रुक जाए तो चंदा जैसी,
माँ तो माँ है चल पड़े तो शीतल हवा जैसी।
 
वो मां है नीर समझ पी लेती
मेरे आंसू,
चिचिलाती धूप में माँ लगे घनी छांव जैसी।
 
कहां कहां खोजा मां छुप गई तू बादलों में,
ममता के हर स्नेह में खोजता छवि मां जैसी।
 
लौट आ अम्मा छुपा ले उसी ओढ़नी में,
ढूंढता हर मधुर पुकार में लोरी मां जैसी।
 
धन्य हुआ मैं मां तेरी जैसी अम्मा पाकर,
मिल जाए हर जनम दुलारी मां तेरे जैसी।
 
संजीव ठाकुर, 

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