शहर बसा नहीं उजाड़ने वाले पहले आ गए
पिछले दिनों केंद्रीय मंत्री द्वारा आठवें वेतन आयोग के गठन संबंधी समाचार आग की भांति समस्त देश विदेश में फैल गया। आठवें वेतन आयोग में वेतनमान को लेकर अफवाहों का बाजार तुरंत प्रभाव से गर्म हो गया। कईं लोग सरकारी कर्मियों के वेतन के बढ़ने की संभावनाओं को लेकर परेशान होने लगे। इनमें से अधिकतर वे लोग हैं जिनके कईंकईं कारखाने चल रहे हैं तथा उनमें बहुत से कर्मचारी काम कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि यदि सरकारी कर्मचारियों का वेतन बढ़ेगा तो उन्हें भी अपने कर्मचारियों का वेतन उसी अनुपात में बढ़ाना होगा।
इसलिए उनके पेट में संभावनाओं को लेकर ही दर्द हो गया। इसी क्रम में विभिन्न समाचार पत्रों में प्रकाशित देश के एक प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री के कुछ विचार चर्चा का विषय बने हुए हैं। अपने लेख के माध्यम से उन्होंने सुझाव दिया है कि आठवें वेतन आयोग का गठन करते समय तीन महत्वपूर्ण बिंदुओं पर ध्यान दिया जाना चाहिए:
1. सरकारी कर्मचारियों के वेतन को कम किया जाना चाहिए क्योंकि यह पहले ही बहुत अधिक है।2. सरकारी कर्मचारियों की आय में भ्रष्टाचार से अर्जित धन को शामिल किया जाना चाहिए।3. वेतन आयोग में किसी भी सरकारी कर्मचारी को शामिल नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि इसमें निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों को जगह दी जानी चाहिए।
आर्थिक और सामाजिक दृष्टिकोण से इन सुझावों का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट होता है कि ये विचार व्यावहारिकता से कोसों दूर हैं। वातानुकूलित कक्ष में बैठकर ऐसे विचार व्यक्त करना बहुत सरल है। परन्तु वास्तविकता कुछ और कहती है।
सबसे पहले,यह कहना कि सरकारी कर्मचारियों का वेतन अत्यधिक है और इसे घटाया जाना चाहिए, न केवल भ्रामक है बल्कि वास्तविकता से परे भी है। वर्तमान समय में सरकारी कर्मचारी भी उसी समाज का हिस्सा हैं जहां महंगाई निरंतर बढ़ रही है। जीवन-यापन की बढ़ती लागत, शिक्षा, चिकित्सा, आवास और अन्य आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए सरकारी कर्मचारियों को भी अन्य वर्गों की तरह संघर्ष करना पड़ता है।
आम धारणा के विपरीत, सरकारी कर्मचारियों के पास ऐसी वित्तीय स्थिरता नहीं होती कि वे बड़े खर्च बिना ऋण लिए कर सकें। वे एक कार खरीदते हैं तो ऋण लेना पड़ता है, घर बनाते समय भी ऋण की आवश्यकता होती है। बच्चों की शादी और शिक्षा जैसी बड़ी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए भी उन्हें वित्तीय संस्थानों की ओर रुख करना पड़ता है। सच पूछिए तो प्रत्येक कर्मचारी ने किसी न किसी प्रकार का ऋण लिया हुआ है और उसका वेतन बैंक की ईएमआई चुकाने में चला जाता है।
अगर उनका वेतन इतना अधिक होता, जैसा कि अर्थशास्त्री महोदय का दावा है, तो उन्हें यह आर्थिक संघर्ष क्यों झेलना पड़ता? हकीकत यह है कि अधिकांश सरकारी कर्मचारी अपने घर में किरायेदार की तरह रहते हैं, क्योंकि उनका वेतन उनकी अपेक्षाओं और आवश्यकताओं को पूरा करने में पर्याप्त नहीं होता।
सरकारी वेतन घटाने का सुझाव न केवल अनुचित है बल्कि इसके दूरगामी परिणाम भी घातक हो सकते हैं। यदि वेतन घटाया जाता है, तो यह कर्मचारियों को भ्रष्ट तरीके अपनाने के लिए मजबूर कर सकता है। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि ऐसा कदम सरकारी व्यवस्था में ईमानदारी की भावना को कमजोर करेगा और कर्मचारियों के कर्तव्यनिष्ठ होने में बाधा उत्पन्न करेगा।
दूसरा सुझाव,जो सबसे अधिक विवादित है, वह यह है कि भ्रष्टाचार से अर्जित धन को सरकारी कर्मचारियों की वार्षिक आय में शामिल किया जाए। यह प्रस्ताव न केवल हास्यास्पद है बल्कि नैतिक और कानूनी दृष्टिकोण से भी पूरी तरह गलत है।
भ्रष्टाचार समाज के लिए कैंसर के समान है, जो न केवल शासन व्यवस्था को खोखला करता है, बल्कि आम नागरिकों का विश्वास भी कमजोर करता है। ऐसे में इसे वैध आय के रूप में स्वीकार करना न केवल भ्रष्टाचार को बढ़ावा देगा, बल्कि इसे सामाजिक और कानूनी मान्यता भी प्रदान करेगा।
भ्रष्ट तरीके से कमाए गए धन को उसकी आय में गणना कर उसे वैध कैसे बनाया जा सकता है। यदि कोई कर्मचारी भ्रष्ट तरीके से धनोपार्जन करता है तो उस पर भारी जुर्माना लगाया जाना चाहिए, न कि उसके धन को आय में शामिल कर उस पर कर निर्धारित कर उसे वैध बनाया जाए। आवश्यकता इस बात की है कि भ्रष्ट अधिकारियों पर सख्त कार्रवाई हो। उनकी संपत्ति जब्त की जाए, उन्हें सेवा से निष्कासित किया जाए। भ्रष्टाचार को नियंत्रित करने के लिए सख्त नीतियों और प्रभावी निगरानी तंत्र की आवश्यकता है, न कि इसे वैध बनाकर सामाजिक व्यवस्था को और भी अधिक बिगाड़ने की।
भ्रष्टाचार को वैध आय में शामिल करने का विचार उस उद्देश्य के पूरी तरह विपरीत है, जिसके लिए सरकार काम कर रही है। सरकार की प्राथमिकता होनी चाहिए कि भ्रष्टाचार के सभी स्रोतों को समाप्त किया जाए और निष्ठावान कर्मियों को पुरस्कृत किया जाए।
तीसरा सुझावकि आठवें वेतन आयोग में सरकारी कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व नहीं होना चाहिए, बल्कि इसमें केवल निजी क्षेत्र के लोग शामिल हों, एक और अव्यावहारिक विचार है। वेतन आयोग का गठन सरकारी कर्मचारियों के वेतन और भत्तों को निर्धारित करने के लिए किया जाता है। इसमें उनकी समस्याओं, आवश्यकताओं और कार्य प्रकृति का विश्लेषण करना महत्वपूर्ण होता है।
यदि आयोग में सरकारी कर्मचारियों का कोई प्रतिनिधि ही न हो, तो उनकी समस्याओं और आवश्यकताओं को सही ढंग से समझा ही नहीं जा सकेगा। यह वैसा ही होगा जैसे किसी फुटबॉल टीम का कोच किसी क्रिकेट खिलाड़ी को बना दिया जाए। सरकारी कर्मचारियों की वेतन संरचना, उनकी नौकरी की प्रकृति, जिम्मेदारियों और कार्यभार को समझने के लिए आयोग में सरकारी कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व आवश्यक है। इसके अतिरिक्त, निजी क्षेत्र के प्रतिनिधियों को शामिल करना कई तरह के हितों के टकराव को जन्म दे सकता है। निजी क्षेत्र के लोग अपने अनुभव और दृष्टिकोण के आधार पर निर्णय लेंगे, जो सरकारी व्यवस्था के अनुकूल नहीं हो सकता।
आठवें वेतन आयोग को न केवल वेतन वृद्धि की दिशा में कार्य करना चाहिए, बल्कि इसे एक व्यापक दृष्टिकोण के साथ काम करना चाहिए। कर्मचारियों के वेतन को महंगाई दर, जीवन स्तर और उनकी जिम्मेदारियों के आधार पर तय किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि वे अपने परिवार की बुनियादी जरूरतों को बिना ऋण के पूरा कर सकें।
भ्रष्टाचार की रोकथाम के लिए सख्त नियम बनाए जाने चाहिए। भ्रष्टाचार के मामलों की जांच के लिए स्वतंत्र और पारदर्शी तंत्र की स्थापना की जानी चाहिए। वेतन आयोग में सरकारी कर्मचारियों का प्रतिनिधित्व अनिवार्य होना चाहिए। इससे नीतियां अधिक संतुलित और वास्तविक होंगी। केवल वेतन वृद्धि ही समाधान नहीं है। कर्मचारियों को उनके उत्कृष्ट कार्यों के लिए प्रोत्साहन और मान्यता दी जानी चाहिए। इससे न केवल उनकी संतुष्टि बढ़ेगी, बल्कि उनकी कार्यक्षमता में भी सुधार होगा। कर्मचारियों को आधुनिक तकनीकों और कार्यप्रणालियों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए, ताकि वे अपने कार्यक्षेत्र में और अधिक कुशल बन सकें।
आठवें वेतन आयोग का गठन एक महत्वपूर्ण और संवेदनशील प्रक्रिया है, जिसका प्रभाव लाखों सरकारी कर्मचारियों और उनके परिवारों पर पड़ता है। इस प्रक्रिया को केवल वेतन वृद्धि तक सीमित न रखते हुए इसे व्यापक दृष्टिकोण के साथ देखना चाहिए। सबसे बड़ी बात तो यह है कि अभी तो आठवें वेतन आयोग के गठन की बात ही हुई है, तो कृपया ऐसे सुझाव न दें। पेंशन पहले ही छीनी जा चुकी है, वेतन तो मत छीनिए। इन प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री के विचार पढ़कर ऐसा लगा कि शहर अभी बसा नहीं और उजाड़ने वाले पहले आ गए।
सरकारी कर्मचारियों का वेतन कम करना या भ्रष्टाचार को वैध आय मानना जैसे सुझाव समाज और देश के हित में नहीं हैं। इसके बजाय, सरकारी कर्मचारियों की समस्याओं को समझकर, उन्हें आर्थिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने के प्रयास किए जाने चाहिए। सरकार, वेतन आयोग और समाज को यह समझना चाहिए कि सरकारी कर्मचारी भी समाज की एक महत्वपूर्ण इकाई हैं। उनकी संतुष्टि और आर्थिक स्थिरता से ही एक मजबूत और विकसित प्रशासनिक व्यवस्था का निर्माण संभव है।
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