समाज में गौरव का प्रतीक बनते दहेजशून्य विवाह

समाज में गौरव का प्रतीक बनते दहेजशून्य विवाह

विवाह, भारतीय संस्कृति में केवल दो व्यक्तियों का मिलन नहीं, बल्कि दो परिवारों का एक पवित्र संगम माना जाता है। यह एक ऐसा संस्कार है, जो न केवल दो हृदयों को जोड़ता है, अपितु दो परिवारों की परंपराओं, मूल्यों और भावनाओं को एक सूत्र में बांधता है। सनातन काल से ही मनुष्य ने इस बंधन को पाणिग्रहण संस्कार के माध्यम से परिवार नामक संस्था की आधारशिला के रूप में स्थापित किया। यह परंपरा न केवल सामाजिक व्यवस्था को सुदृढ़ करती थी, बल्कि मानवीय संबंधों को भी गहराई प्रदान करती थी। वैदिक काल में विवाह को आठ प्रकारों में वर्गीकृत किया गया था, जो उस समय की सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक मान्यताओं का प्रतिबिंब थे।

ये आठ प्रकार थे—ब्रह्म विवाह, देव विवाह, आर्ष विवाह, प्रजापत्य विवाह, असुर विवाह, गंधर्व विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह। इनमें से पहले चार प्रकार—ब्रह्म, देव, आर्ष और प्रजापत्य—को ही श्रेष्ठ और सम्मानजनक माना जाता था, क्योंकि ये धर्म, नैतिकता और पारिवारिक मर्यादा पर आधारित थे। शेष चार प्रकार, जो बल, धन या अनैतिकता से प्रेरित थे, समाज में कम स्वीकार्य थे। आज भी प्रजापत्य विवाह की पद्धति, जिसमें कन्या का सम्मान और परिवारों की सहमति सर्वोपरि होती है, भारतीय समाज में प्रचलन में देखी जा सकती है।

विवाह के इस पवित्र संस्कार के साथ कई परंपराएं जुड़ी थीं, जिनमें से एक थी कन्या को उसके पिता द्वारा दी जाने वाली संपत्ति, जिसे 'स्त्री धन' कहा जाता था। यह धन पिता अपनी सामर्थ्य और इच्छा के अनुसार कन्या को प्रदान करता था, ताकि वह अपने नए जीवन में आत्मनिर्भर और सम्मानित रह सके। यह प्रथा मूल रूप से कन्या के कल्याण और सुरक्षा के लिए शुरू की गई थी, लेकिन समय के साथ इसका स्वरूप विकृत हो गया। धीरे-धीरे यह परंपरा दहेज प्रथा के रूप में परिवर्तित हो गई, जो आज भारतीय समाज की एक गंभीर समस्या बन चुकी है।

यह वह कुप्रथा बन गई, जिसने न जाने कितने परिवारों को तबाह किया और कितनी नववधुओं के जीवन को असमय समाप्त कर दिया। समाज में बढ़ते आडंबर, दिखावे और लालच ने इस प्रथा को और भी भयावह बना दिया। दहेज की मांग पूरी न होने पर बहुओं को प्रताड़ित करना, उनकी हत्या करना या उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर करना जैसे जघन्य अपराध इस प्रथा के दुष्परिणाम बन गए। समाचार पत्रों में अक्सर ऐसी खबरें छपती थीं, जो समाज की इस कुरूपता को उजागर करती थीं। यह विडंबना ही थी कि एक ओर समाज में दहेज को लेकर चिंता व्यक्त की जाती थी, वहीं दूसरी ओर यह प्रथा थमने का नाम नहीं ले रही थी।

इतिहास में समय-समय पर समाज सुधारकों और सामाजिक कार्यकर्ताओं ने इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए अथक प्रयास किए। राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर जैसे महान सुधारकों ने नारी सम्मान और सामाजिक समानता के लिए आवाज उठाई। आधुनिक काल में भी कई संगठनों और व्यक्तियों ने दहेज प्रथा के खिलाफ अभियान चलाए। सरकार ने भी इस दिशा में कदम उठाते हुए दहेज निषेध अधिनियम, 1961 जैसे कानून बनाए, जिसके तहत दहेज लेना और देना दोनों को अपराध घोषित किया गया। लेकिन इन प्रयासों के बावजूद, यह प्रथा पूरी तरह समाप्त नहीं हुई।

कई बार यह देखा गया कि जो लोग सार्वजनिक मंचों पर दहेज प्रथा का विरोध करते थे, वे स्वयं अपने निजी जीवन में इससे मुक्त नहीं रह पाते थे। यह दोहरा चरित्र समाज में व्याप्त पाखंड को दर्शाता था। एक ओर लोग इसे सामाजिक बुराई मानते थे, वहीं दूसरी ओर अपने बच्चों के विवाह में दहेज की मांग या प्रदर्शन को उचित ठहराते थे। इस तरह की विडंबनाओं ने समाज को और भी गहरे संकट में डाला।

हालांकि, समय के साथ समाज में सकारात्मक बदलाव भी देखने को मिल रहे हैं। पिछले कुछ वर्षों में दहेज के खिलाफ जागरूकता बढ़ी है और लोग इस कुप्रथा को त्यागने की दिशा में कदम उठा रहे हैं। मेरे अपने अनुभव और जानकारी के आधार पर, पिछले तीन-चार वर्षों में कई ऐसे विवाह हुए हैं, जो न्यूनतम खर्च और सादगी के साथ संपन्न हुए। इनमें से कुछ विवाह केवल एक नारियल और एक रुपये के शगुन के साथ संपन्न हुए, जो समाज के लिए एक प्रेरणादायक उदाहरण बन गए। हरियाणा कर्मचारी चयन आयोग के पूर्व चेयरमैन श्री भोपाल खदरी ने अपने सुपुत्र मुकुल भारती का विवाह इसी सादगी के साथ संपन्न करवाया।

उन्होंने न तो दहेज लिया और न ही कोई भव्य आयोजन किया। उनके इस कदम ने न केवल लोगों को प्रभावित किया, बल्कि कई अन्य परिवारों को भी प्रेरित किया। उनकी देखादेखी हरियाणा और आसपास के क्षेत्रों में कई और विवाह बिना दहेज के, केवल एक रुपये और नारियल के शगुन के साथ संपन्न हुए। यह सादगी न केवल दहेज प्रथा पर प्रहार थी, बल्कि समाज में व्याप्त दिखावे और आडंबर को भी चुनौती देती थी।

मेरे एक घनिष्ठ मित्र श्री रणधीर जी, जो एक प्राथमिक विद्यालय में अध्यापक के रूप में कार्यरत हैं, ने भी हाल ही में अपने पुत्र दुष्यंत का विवाह इसी सादगी के साथ संपन्न करवाया। रणधीर जी ने न केवल दहेज लेने से इनकार किया, बल्कि विवाह को केवल एक रुपये और नारियल के शगुन तक सीमित रखा। इतना ही नहीं, उन्होंने प्रीतिभोज के दौरान किसी भी अतिथि से शगुन का लिफाफा तक स्वीकार नहीं किया। यह उनके दृढ़ संकल्प और नैतिकता का परिचायक था। उनका यह कदम समाज में एक नई मिसाल बन गया। रणधीर जी का मानना है कि विवाह दो आत्माओं का मिलन है, न कि धन और संपत्ति का प्रदर्शन। उनकी यह सोच न केवल प्रेरणादायक है, बल्कि समाज में बदलाव की एक नई उम्मीद भी जगाती है।

इस तरह के उदाहरण समाज में एक सकारात्मक संदेश प्रसारित करते हैं। यह परंपरा न केवल दहेज जैसी कुप्रथा पर अंकुश लगाने में सहायक होगी, बल्कि बेटियों को बोझ समझने की मानसिकता को भी बदलेगी। भारतीय समाज में लंबे समय से बेटियों के जन्म को लेकर नकारात्मक सोच रही है। दहेज की मांग ने इस सोच को और भी बढ़ावा दिया, क्योंकि माता-पिता को लगता था कि बेटी के विवाह के लिए उन्हें भारी धनराशि खर्च करनी पड़ेगी। लेकिन जब विवाह सादगी से और बिना दहेज के संपन्न होने लगेंगे, तो यह मानसिकता भी धीरे-धीरे खत्म होगी। बेटियां बोझ नहीं, बल्कि परिवार का गौरव समझी जाएंगी। यह बदलाव न केवल परिवारों को सशक्त करेगा, बल्कि समाज को भी एक नई दिशा देगा।

आज जरूरत है कि हम सभी मिलकर इस दिशा में प्रयास करें। सरकार, सामाजिक संगठन और व्यक्तिगत स्तर पर जागरूकता फैलाने की आवश्यकता है। शिक्षा के माध्यम से युवाओं को यह समझाना होगा कि विवाह का आधार प्रेम, सम्मान और समानता होना चाहिए, न कि धन और संपत्ति। साथ ही, ऐसे लोगों को सम्मानित करना होगा जो सादगी से विवाह संपन्न करते हैं और दहेज जैसी कुप्रथा को नकारते हैं। जब समाज में ऐसे उदाहरण बढ़ेंगे, तो धीरे-धीरे यह प्रथा अपने आप समाप्त हो जाएगी। यह एक लंबी प्रक्रिया हो सकती है, लेकिन असंभव नहीं है। श्री भोपाल खदरी और श्री रणधीर जी जैसे लोग इस बदलाव के अग्रदूत हैं, जो हमें दिखाते हैं कि सही मायनों में विवाह दो परिवारों का मिलन है, न कि धन का लेन-देन।

अंत में, यह कहना उचित होगा कि विवाह केवल एक संस्कार नहीं, बल्कि एक सामाजिक उत्तरदायित्व भी है। इसे सादगी और सम्मान के साथ निभाकर हम न केवल अपने परिवारों को सुखी रख सकते हैं, बल्कि समाज को भी एक बेहतर दिशा दे सकते हैं। दहेज जैसी कुप्रथा को समाप्त करने के लिए हमें स्वयं से शुरुआत करनी होगी। जब हर व्यक्ति इस संकल्प को अपनाएगा, तभी हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर पाएंगे, जहां बेटियां सम्मान की पात्र होंगी और विवाह सही मायनों में दो दिलों और दो परिवारों का पवित्र बंधन कहलाएगा।


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