संजीव-नी।

आकृती ऐसी बनाना चाहता हूं।

संजीव-नी।

आकृती ऐसी बनाना चाहता हूं।
 
आकृती ऐसी बनाना चाहता हूं
जो सीधी भी,
सादी भी,
बोल दे सारी मन की व्यथा भी।
 
फूलों की दीपमाला सी
धूप दीप सी
मंत्रोचार सी।
 
जिसे चाह ना हो माया की,
खुली हर पीड़ित के लिए
जिसकी बांहें हो।
 
नयन जिसके आतुर हो
हर पल हर घड़ी
प्रभु दर्शन के लिए।
 
हर दिल की पीड़ा घोले
आंखों में जिसकी 
झलकता प्यार हो।
 
हंसी में जिसकी
हरसृंगार फूल सा खिलता
रुपहला सारा संसार हो।
 
आकृती बनाना चाहता हूं
इंद्रधनुषी रंगों सेओत-प्रोत
मानवीय संभावनाओं के 
के नीले नीले आकाश सी।
 
संजीव ठाकुर

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