भीमा कोरेगांव केस।: 6 साल से जेल में बंद शोमा सेन को जमानत।

भीमा कोरेगांव केस।: 6 साल से जेल में बंद शोमा सेन को जमानत।

ब्यूरो प्रयागराज।
सुप्रीम कोर्ट ने नागपुर यूनिवर्सिटी की पूर्व प्रोफेसर शोमा सेन को जमानत दी। उन पर भीमा कोरेगांव मामले के संबंध में कथित माओवादी संबंधों के लिए गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम 1967 (यूएपीए) के तहत मामला दर्ज किया गया।उन्हें  6 जून, 2018 को गिरफ्तार किया गया और तब से वह हिरासत में है और मुकदमे का इंतजार कर रही है।
जस्टिस अनिरुद्ध बोस और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की खंडपीठ ने कहा कि यूएपीए की धारा 43डी(5) के अनुसार जमानत देने पर प्रतिबंध सीनेटर के मामले में लागू नहीं होगा।
 
बेंच ने यह भी कहा कि सेन कई बीमारियों से एक साथ जूझ रही ज़्यादा उम्र की महिला हैं। इसके अलावा, इसमें उसके लंबे समय तक कारावास, मुकदमे की शुरुआत में देरी और आरोपों की प्रकृति को भी ध्यान में रखा गया।  उनपर माओवादी से संबंध के आरोप लगाए गए हैं। अब इतने सालों बाद ज़मानत मिलने पर उनको जेल से रिहा किया जाएगा। हालाँकि, अदालत ने उनपर कुछ शर्तें भी लगाई हैं। 
 
जस्टिस अनिरुद्ध बोस और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने कहा कि यूएपीए की धारा 43डी(5) के अनुसार जमानत देने पर प्रतिबंध सेन के मामले में लागू नहीं होगा। पीठ  ने यह भी कहा कि सेन एक उम्रदराज महिला हैं और उनको कई बीमारियाँ भी हैं। इसके अलावा अदालत ने लंबे समय तक कारावास, मुकदमे की शुरुआत में देरी और आरोपों की प्रकृति को भी ध्यान में रखा।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) ने अदालत द्वारा यह पूछे जाने पर कि उसकी हिरासत क्यों जरूरी है, 15 मार्च को अदालत को बताया कि उसकी आगे की हिरासत की आवश्यकता नहीं है। इस बयान को कोर्ट ने भी संज्ञान में लिया।
 
पीठ  ने निर्देश दिया कि सेन विशेष अदालत की अनुमति के बिना महाराष्ट्र राज्य नहीं छोड़ेंगी, अपना पासपोर्ट सरेंडर करेंगी और अपना पता और मोबाइल नंबर जांच अधिकारी को देंगी। उसे अपने मोबाइल फोन की लोकेशन और जीपीएस को भी पूरे समय सक्रिय रखना चाहिए और डिवाइस को जांच अधिकारी के डिवाइस के साथ जोड़ा जाना चाहिए, जिससे उनकी लोकेशन का पता चल सके।
 
31 दिसंबर, 2017 को पुणे में एलगार परिषद सम्मेलन हुआ था और उसके अगले दिन भीमा कोरेगाँव में हिंसा हुई थी। जनवरी, 2018 में पुलिस ने वामपंथी कार्यकर्ता के पी. वरवर राव, सुधा भारद्वाज, अरुण फ़रेरा, गौतम नवलखा और वरनो गोन्जाल्विस जैसे एक्टिविस्टों के ख़िलाफ़ केस दर्ज किया था। बाद में कई लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया था। आरोप लगाया गया है कि इस सम्मेलन के बाद भीमा-कोरेगाँव में हिंसा भड़की। हालाँकि इनकी गिरफ़्तारी के बाद से ही कई लोग यह दावा कर रहे हैं कि इस मामले में इनको जानबूझ कर इसलिए फँसाया जा रहा है क्योंकि वे दलित समुदाय के अधिकारों की पैरवी करते हैं। 
 
2018 में चूँकि इस युद्ध की 200वीं वर्षगाँठ थी लिहाज़ा बड़े पैमाने पर लोग जुटे और टकराव भी हुआ। इस सम्बन्ध में शिव प्रतिष्ठान हिंदुस्तान के अध्यक्ष संभाजी भिडे और समस्त हिंदू अघाड़ी के मिलिंद एकबोटे पर आरोप लगे कि उन्होंने मराठा समाज को भड़काया, जिसकी वजह से यह हिंसा हुई। भिडे, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रचारक हैं और एकबोटे भारतीय जनता पार्टी के नेता और विधायक का चुनाव लड़ चुके हैं। हिंसा के बाद दलित नेता प्रकाश आंबेडकर ने इन पर मुक़दमा दर्ज कर गिरफ़्तार करने की माँग की थी।
 
लेकिन इस बीच हिंसा भड़काने के आरोप में पहले तो बड़ी संख्या में दलितों को गिरफ़्तार किया गया और बाद में सामाजिक कार्यकर्ताओं को। इसमें शोमा सेन भी शामिल थीं। भीमा कोरेगांव मामले के संबंध में कथित माओवादी संबंधों के लिए गैरकानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम 1967 यानी यूएपीए के तहत मामला दर्ज किया गया था। उन्हें 6 जून, 2018 को गिरफ्तार किया गया था और तब से वह हिरासत में है और मुकदमे का इंतजार कर रही है। 
 
पीठ  बॉम्बे हाईकोर्ट के जनवरी 2023 के आदेश को चुनौती देने वाली याचिका पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें उसने सेन को जमानत के लिए अपने मामले की सुनवाई कर रही विशेष अदालत से संपर्क करने का निर्देश दिया। बासठ वर्षीय सेन इस मामले में जमानत पाने वाले सोलह आरोपियों में से छठे हैं। सुधा भारद्वाज को डिफ़ॉल्ट जमानत (2021) मिली, जबकि आनंद तेलतुम्बडे (2022), वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा (2023) को योग्यता के आधार पर जमानत मिली।
 
वरवरा राव को मेडिकल आधार पर जमानत दे दी गई और गौतम नवलखा को हालांकि, बॉम्बे हाईकोर्ट ने नवलखा और महेश राउत को योग्यता के आधार पर जमानत दे दी, लेकिन इन आदेशों पर हाईकोर्ट ने ही रोक लगा दी थी और स्थगन आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने बढ़ा दिया। एक अन्य आरोपी फादर स्टेन स्वामी की जुलाई 2021 में हिरासत में मृत्यु हो गई थी।
 
 सुप्रीम कोर्ट ने स्वास्थ्य कारणों से हाउस अरेस्ट कर दिया।
गिरफ्तार प्रोफेसर सेन का प्रतिनिधित्व करने वाले सीनियर एडवोकेट आनंद ग्रोवर ने इस बात पर जोर दिया कि सेन को गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) अधिनियम, 1967 के तहत मामले से जोड़ने या प्रतिबंधित भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के साथ उनके कथित संबंध स्थापित करने के सबूतों की कमी है सीनियर वकील ने सेन के स्वयं के इलेक्ट्रॉनिक डिवाइस पर किसी भी आपत्तिजनक साक्ष्य की अनुपस्थिति को रेखांकित किया और सह-अभियुक्त व्यक्तियों से बरामद अहस्ताक्षरित दस्तावेजों की विश्वसनीयता और संभावित मूल्य पर सवाल उठाया।ग्रोवर ने जमानत के लिए सेन की याचिका को मजबूत करने के लिए सेन की बढ़ती उम्र, खराब स्वास्थ्य और लंबे समय तक जेल में रहने का भी हवाला दिया। 
 
बहस के दौरान, ग्रोवर ने वर्नोन गोंजाल्विस के फैसले में अनुपात पर भरोसा करते हुए अपने मामले का समर्थन किया, जिसे पिछले साल जस्टिस बोस और जस्टिस सुधांशु धूलिया की खंडपीठ ने सुनाया था। इस मामले में सह-आरोपी वर्नोन गोंसाल्वेस और अरुण फरेरा को लगभग पांच साल की हिरासत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने जमानत दे दी थी। राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) का प्रतिनिधित्व कर रहे एडिशनल सॉलिसिटर जनरल केएम नटराज ने सुप्रीम कोर्ट में संकटग्रस्त शिक्षाविद् की जमानत याचिका की स्थिरता को चुनौती दी।
 
इस संदर्भ में, एनआईए ने अतिरिक्त आरोप पत्र दायर होने के कारण जमानत याचिका को विशेष अदालत में भेजने के हाईकोर्ट के फैसले का भी समर्थन किया। एजेंसी ने यह भी दलील दी कि अगर हाईकोर्ट का आदेश गलत भी है तो अपीलीय अदालत को पूरी सामग्री पर विचार करना जरूरी है।इसके बाद पिछली सुनवाई में एजेंसी से जब सेन की निरंतर हिरासत की आवश्यकता के बारे में पूछा गया तो उन्होंने स्वीकार किया कि उन्हें अब उनकी हिरासत की आवश्यकता नहीं है।
 
इसके अलावा, एएसजी ने सेन के इस तर्क को भी सिरे से खारिज कर दिया कि पूरक आरोपपत्रों में ऐसी कोई सामग्री नहीं है, जो उन्हें यूएपीए मामले में फंसाती हो। उन्होंने कहा कि ऐसी सामग्रियां हैं, जो यह स्पष्ट करती हैं कि सेन इन प्रतिबंधित माओवादी संगठनों के प्रमुख संगठन का हिस्सा हैं।
 
 

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