(पर्यावरण चिंतन)  कहीं सूखा, कहीं आग। वर्षा ऋतु में परिवर्तन जल रसातल में, पृथ्वी पर बड़े खतरे का संकेत।

(पर्यावरण चिंतन)  कहीं सूखा, कहीं आग। वर्षा ऋतु में परिवर्तन जल रसातल में, पृथ्वी पर बड़े खतरे का संकेत।

भारत जैसे विकासशील देश में ही जहां गरीबी ने अपना परचम फैला रखा है। शहरों में पेट्रोल ,डीजल, केरोसिन से चलने वाली गाड़ियों और वातानुकूलित यंत्रों याने ए,सी की संख्या में बेतहाशा वृद्धि होने से वातावरण में उष्णता बढ़ते जा रही हैl इसके अलावा वनों का विनाश एक भयानक समस्या के रूप में देश में फैलता जा रहा हैl अंधाधुंध फैक्ट्रियों एवं मशीनों के उपकरणों से निकलने वाले धुंए से वातावरण विषैला बनाकर मनुष्य और जीव जंतुओं का जीना दूभर कर दिया है।
 
वनों की कटाई के साथ-साथ कंक्रीट के जंगल धीरे-धीरे गांव की तरफ बढ़ने लगे हैं, ऐसे में शुद्ध वायु और और तापमान में आश्चर्यजनक बदलाव जिसके परिणाम स्वरूप वर्षा ऋतु के परिवर्तन एवं बारिश में न्यूनता आने से धरती के तापमान में बेतहाशा वृद्धि हुई है। इसी के चलते देश के कई शहरों में तापमान 48 से 50 सेल्सियस होने के कारण पशु पक्षी एवं मनुष्य की हीट स्ट्रोक से मृत्यु हुई हो जाती है। पानी की कमी तथा शरीर में डिहाइड्रेशन से लोगों की तथा वन्य पशुओं की लगातार मृत्यु हो रही है।
 
ग्लोबल वार्मिंग का खतरा वैज्ञानिकों के अनुसार पूरे विश्व में बहुत बढ़ गया है और ऐतिहासिक तौर पर पिछले दो से तीन सौ वर्षों की तुलना की जाए तो बीते कुछ वर्षों में धरती का तापमान आश्चर्यजनक रूप से तीव्र गति से बढ़ गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार पृथ्वी के पास ग्लोबल वार्मिंग से बचने के लिए कुल मिलाकर 10 से 15 वर्ष ही शेष है। वैज्ञानिकों की यह बातें और रहस्योद्घाटन मानवता को डराने वाला जरूर है पर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसके उपायों की जो घोर अनदेखी की जा रही है वह अत्यंत चिंतनीय है।
 
मानवता के लिए अत्यंत खतरनाक भी है। ग्लोबल वार्मिंग न सिर्फ मनुष्य के लिए खतरा है बल्कि जीव-जंतुओं समुद्र मैं पाए जाने वाले जीवो के लिए भी यह अत्यंत विषैला तथा खतरनाक हो सकता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वैज्ञानिकों के शोध के अनुसार जीवाश्म ईंधन के दशक ने एवं जलने से ग्लोबल वार्मिंग का तापमान तेजी से बढ़ा है एवं पूरी पृथ्वी जीवाश्म ईंधन के जलने से तेजी से धड़क रही है। वैज्ञानिकों की चेतावनी तथा दिए गए प्रमाण के बाद भी अनेक देश जो कार्बन उत्सर्जन के बड़े जिम्मेदार हैं, जीवाश्म ईंधन की इस्तेमाल को कम करने या खत्म करने का नाम ही नहीं ले रहे हैं।
 
जीवाश्म ईंधन की खपत खत्म होने की बात तो दूर है कम करने का नाम ही नहीं ले रहे हैं, और तो और इसके आसार भी निकट भविष्य में दिखाई नहीं दे रहे हैं। भारत को छोड़कर अन्य यूरोपीय देशों जिसमें अमेरिका ब्रिटेन के अलावा 32 देशों ने जो कार्बन उत्सर्जन एवं जीवाश्म ईंधन के उपयोग के लिए सर्वाधिक जिम्मेदार हैं, सम्मेलन कर इस पर चिंता जरूर जताई है पर इसमें स्पष्ट तौर पर अमेरिका, ब्रिटेन ,जापान चीन ,रूस की दादागिरी दिखाई देती है,यह छोटे गरीब देशों पर सारी जिम्मेदारी लादने का काम कर रहे हैं।
 
विश्व के कुल देशों में से लगभग 50 देश ऐसे हैं जो जीवाश्म ईंधन का उपयोग कर पृथ्वी को धधकाने के कार्य का 60% तक हिस्सेदारी रखते हैं। लेकिन इन देशों को ग्लोबल वार्मिंग की चिंता की बजाए विकासशील देश एवं गरीब देशों पर पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर ग्लोबल वार्मिंग के नाम पर दोषारोपण कर के अपनी इतिश्री कर लेते हैं। ग्लोबल वार्मिंग तथा पर्यावरण चिंतन जितने भी सम्मेलन हुए हैं इसमें बड़े देशों की नीति एवं दादागिरी स्पष्ट रूप से दिखाई देती है।
 
चीन जो सबसे बड़ा कार्बन का उत्सर्जक देश है उसने पर्यावरण पर हुए सम्मेलनों में हिस्सेदारी तो दूर उसकी तरफ ध्यान देना भी उचित नहीं समझा। इंटरनेशनल पॉल्यूशन कंट्रोल कमिटी ने चेतावनी दी है कि धरती के तापमान की वृद्धि को डेढ़ डिग्री तक रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन में 43% से 50% तक कटौती करनी होगी। 2010 से लेकर 2021 तक दुनिया का औसत वार्षिक ग्रीन हाउस गैस उत्सर्जन मानव इतिहास में सबसे उच्चतम स्तर पर पहुंच गया है जो सर्वाधिक खतरे के निशान से भी ऊपर है।
 
फलस्वरूप जलवायु परिवर्तन के वजह से होने वाली ग्लोबल वार्मिंग को रोकने के लिए हमें अपने उत्सर्जन को लगभग शून्य पर लाना होगा, और इस कार्य के लिए पूरी दुनिया को ऊर्जा क्षेत्र में बड़े और कार्यकारी बदलाव लाने होंगे, इसके अलावा जीवाश्म ईंधन के उपभोग में भारी कमी भी लानी पड़ेगी। विगत 3 वर्षों में अक्षय ऊर्जा स्रोतों में जैसे सौर एवं पवन ऊर्जा साथी स्टोरेज बैटरी की लागत में आश्चर्यजनक गिरावट आई है जो लगभग गैस तथा कोयले की कीमत के बराबर हो गए हैं। कार्बन उत्सर्जन अभी 54% अधिक है।
 
वास्तविक रूप से देखा जाए तो दुनिया के सब अमीर देश अकेले विश्व के कुल गैस उत्सर्जन के लिए बड़े जिम्मेदार पाए गए हैं। वैज्ञानिकों ने कहा है कि अगले आठ दस सालों में अपने गैस उत्सर्जन में कटौती को आधा यानी 50% से कम नहीं करती है तो वर्ष 2050 तक उसे शून्य स्तर पर लाना होगा, अगर ऐसा नहीं किया तो पृथ्वी को तबाह होने से कोई नहीं रोक सकता है। भारतीय संदर्भ में देखा जाए तो भारत मोटे तौर पर ग्रीन हाउस गैसों के कुल वैश्विक उत्सर्जन में सहित 6.8 प्रतिशत का हिस्सेदार है।
 
1990 से लेकर 1920 तक भारत के ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में एक में 175% की बढ़ोतरी हुई है। 2013 से 2021 के बीच देश के प्रति व्यक्ति उत्सर्जन की मात्रा 17 फ़ीसदी बढ़ी है, राहत की बात यह है कि अब भी भारत का उत्सर्जन स्तर जी-20 देशों के औसत स्तर से बहुत नीचे है। देश में अक्षय ऊर्जा की हिस्सेदारी 11% की है, भारत की कुल ऊर्जा आपूर्ति में जीवाश्म ईंधन आधारित प्लांट का योगदान 74% है। यदि कार्बन उत्सर्जन को रोका नहीं गया और जीवाश्म ईंधन के उपयोग की रफ्तार यही रही तो भारत सहित विश्व के अधिकांश देश अपनी धरती को बचाने में सक्षम नहीं होंगे।
 
संजीव ठाकुर

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