महाराष्ट्र और झारखंड में बहुत कठिन है डगर पनघट की।

महाराष्ट्र और झारखंड में बहुत कठिन है डगर पनघट की।

महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं।भाजपा गठबंधन एनडीए और इंडिया गठबंधन के बीच कड़ा मुकाबला है।लेकिन झारखंड में कार्पोरेट नहीं चाहते सोरेन यानी इंडिया चुनाव जीते और अडानी चाहते हैं महाराष्ट्र में शिंदे सरकार रिपीट हो।मोदी और शाह ने पूरा जोर लगा दिया है पर महाराष्ट्र में भाजपा की रैलियों में भीड़ नदारद है।अब चुनाव परिणाम जो दिख रहा है वैसा होगा या हरियाणा जैसा होगा यह तो मतगणना के दिन 23 नवम्बर को ही पता चलेगा । दरअसल 2014 और 2019 के चुनाव में बीजेपी ने महाराष्ट्र में बड़ी सफलता हासिल की थी। 2024 के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में बीजेपी के लिए बड़ी चुनौती की उम्मीद थी। इसलिए पीएम मोदी ने खुद महाराष्ट्र में 19 सभाएं और एक रोड शो किया, लेकिन इतनी सभाओं के बाद भी बीजेपी महाराष्ट्र में केवल 9 सीटें ही जीत पाई, जबकि एनडीए केवल 17 सीटें ही हासिल कर सका।
हर चुनाव में कुछ नाटकीय किरदार होते हैं। महाराष्ट्र में इस बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या विपक्ष के नेता राहुल गांधी नहीं बल्कि राज्य के नेता “महाकथा” की भीड़ में हैं।जब तक कोई विशेष रूप से प्रधानमंत्री या गांधी का मुद्दा न उठाए, शायद ही कोई उनका जिक्र करता है। 
 
शिवसेना के सीएम एकनाथ शिंदे हैं , जिनकी मुख्यमंत्री माझी लड़की बहिन योजना के कारण प्रशंसा हो रही है। शिंदे भी धीरे-धीरे मराठा नेता के रूप में अपनी जगह बना रहे हैं। फिर बीजेपी के डिप्टी सीएम देवेंद्र फडणवीस हैं , जिनका अधिकार आरएसएस के हस्तक्षेप की बदौलत हाल ही में कुछ हद तक बहाल हुआ है।दूसरे डिप्टी सीएम अजित पवार अपनी पीठ पीछे लड़ रहे हैं। उन्होंने अब संकेत दे दिए हैं कि वे नहीं चाहते कि मोदी, केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और उत्तर प्रदेश के सीएम योगी आदित्यनाथ जैसे वरिष्ठ भाजपा नेता उनकी पार्टी को आवंटित निर्वाचन क्षेत्रों में प्रचार करें क्योंकि वे नहीं चाहते कि ध्रुवीकरण करने के लिए उनकी बयानबाजी मुसलमानों को नाराज़ करे। उन्होंने अपने समर्थकों से यह भी कहा है कि वे शरद पवार की व्यक्तिगत रूप से आलोचना न करें क्योंकि इससे उनके चाचा के लिए सहानुभूति पैदा होती है। दूसरी तरफ़ उद्धव ठाकरे हैं जो असली शिवसेना के रूप में पहचाने जाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। उनके लिए सद्भावना तो है, लेकिन लोकसभा चुनावों के स्तर पर नहीं।कांग्रेस ने स्थानीय स्तर पर चुनाव लड़ने का विकल्प चुना है, जिसमें विभिन्न नेता अपने-अपने क्षेत्रों में ही रहेंगे।
 
महा विकास अघाड़ी (एमवीए) खेमे में सबकी निगाहें इस बात पर टिकी हैं कि ऑर्केस्ट्रा के उस्ताद शरद पवार क्या नया सुर अलापते हैं। उन्होंने बारामती में सहानुभूति कार्ड खेला, जहां से अजित चुनाव लड़ रहे हैं, जब उन्होंने संकेत दिया कि यह उनका आखिरी चुनाव है और इंडियन एक्सप्रेस को दिए एक साक्षात्कार में उन्होंने स्वीकार किया कि महायुति की कल्याणकारी योजनाओं के कारण एमवीए ने अपना कुछ लाभ खो दिया है।
महाराष्ट्र में आज 288 अलग-अलग लड़ाइयां लड़ी जा रही हैं , जो जाति, उम्मीदवार, धर्म, फसल की कीमतों को लेकर किसानों की नाराजगी, मुद्रास्फीति और विधानसभा चुनाव के दौरान उठने वाले कई स्थानीय मुद्दों से प्रभावित हैं।चुनाव के केंद्र में पवार और फडणवीस के बीच लंबे समय से चल रही लड़ाई है। यह 2014 से चल रही है जब भाजपा 122 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी और फडणवीस सीएम बने। उन्होंने आरक्षण कार्ड खेलकर अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) के बीच भाजपा के समर्थन को बढ़ाने के लिए मराठा समर्थन जीतने की कोशिश की। फडणवीस ने 2019 में अजित पवार को अपने पक्ष में कर लिया था, लेकिन अजित कुछ ही दिनों में अपने चाचा के पास वापस चले गए - हालांकि उन्होंने अंततः 2023 में एनसीपी को तोड़ दिया - जिससे प्रतिद्वंद्विता में व्यक्तिगत तत्व भी शामिल हो गया।
 
पिछले साल मराठा आरक्षण कार्यकर्ता मनोज जरांगे पाटिल ने मराठा आरक्षण की मांग को लेकर फिर से आवाज़ उठाई, लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि उन्होंने मांग की कि आरक्षण ओबीसी के हिस्से से दिया जाए। इस प्रक्रिया में, उन्होंने फडणवीस को अपने हमलों का निशाना बनाया और उन्हें समुदाय के हितों के विरोधी के रूप में चित्रित किया। आज, संसद में  बीजेपी के पास सिर्फ 240 सीटें हैं, ऐसे में काम करवाने की मोदी की क्षमता सीमित हो चुकी है, और इसे कई नीतिगत फैसलों को पलटने और यू-टर्न में देखा जा सकता है ।इस बार यदि महाराष्ट्र और झारखण्ड भाजपा के हाथ से निकला तो मोदी शाह के लिए संघ और भाजपा में ही नई चुनौतियाँ उभरेंगी जिससे पार पाना अत्यंत कठिन होगा ।फिर  मोदी के सहयोगी, यानी चंद्रबाबू नायडू जैसे उनकी सरकार को समर्थन देने वाले लोग अपने क्षेत्रीय एजेंडे को आगे बढ़ाना चाहते हैं और तबतक मोदी के साथ हैं जबतक उनके राजनितिक हित सिद्ध हो रहे हैं । 
 
आज, बीजेपी के पास सिर्फ 240 सीटें हैं, ऐसे में काम करवाने की मोदी की क्षमता सीमित हो चुकी है, और इसे हमने कई नीतिगत फैसलों को पलटने और यू-टर्न में हमने देखा है। अब यह दावा करने का तुक ही नहीं है कि मोदी विशेष हैं और अद्वितीय हैं। नोटबंदी और कोरोना काल के लॉकडाउन जैसे उनके ऐसे फैसले जिनकी भनक कैबिनेट तक को नहीं होती थी, जिन्हें मास्टरस्ट्रोक कहा जाता था, वह क्षमता खत्म हो चुकी है। सरदेसाई बताते हैं कि सहयोगियों को अपने साथ बनाए रखने में काफी समय और ऊर्जा खर्च की जा रही है और आगे भी की जाती रहेगी ताकि कोई अंदरूनी असंतोष न हो।
 
भाजपा ने झारखंड में कथित बंग्लादेशी घुसपैठ  को  चुनावी मुद्दा बनाना चाहा। दिन-रात हिन्दू मुस्लिम जिहाद का राग अलापने वाले असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने एक से बढ़कर एक विवादित भाषण दिए, लेकिन झारखंड की आदिवासी बेल्ट पर उसका कोई असर नहीं दिख रहा। उल्टा लोग सवाल कर रहे हैं। अब इसी सवाल को लीजिए- चंपई सोरेन छह बार के विधायक हैं, वह झारखंड मुक्ति  मोर्चा सरकार में मंत्री थे। उन्हें तथाकथित घुसपैठ तब क्यों नहीं दिखी? लेकिन जब दिल्ली से उनका चश्मा बनकर आया तो उनको घुसपैठिया नज़र आ गया।
 
पूर्वी सिंहभूम, सरायकेला खरसावां और पश्चिमी सिंहभूम जिलों को मिलाकर, कोल्हान क्षेत्र की 14 सीटों के लिए मतदान 13 नवंबर को है। ये सभी 14 सीटें आदिवासी बहुल सीटें हैं। बीजेपी को कोल्हान में कभी खास सफलता नहीं मिली और 2019 में उसे 14 में से एक भी सीट नहीं मिली। 20 सीटें एसटी  (अनुसूचित  जनजाति) के लिए रिजर्व हैं। भाजपा ने इस बार रणनीति बदल दी और यहां के आदिवासियों को मुस्लिमों के घुसपैठ का डर दिखाया। पूरा चुनाव कथित बांग्लादेशी घुसपैठ की आड़ में हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण कराने की कोशिश की गई। यहां तक की इस लाइन पर पीएम मोदी और अमित शाह के भाषण भी रहे।
 
इंडिया गठबंधन यानी जेएमएम-कांग्रेस-आरजेडी गठबंधन ने 2019 के विधानसभा चुनावों में 17 सीटें जीतीं।  भाजपा को सिर्फ दो सीटें दक्षिणी छोटानागपुर में मिली। उसके सहयोगी झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) (जेवीएम-पी) ने एक सीट जीती। जेवीएम-पी का अब बीजेपी में विलय हो गया है। रघुबर दास के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार द्वारा 2016 में छोटा नागपुर किरायेदारी अधिनियम और संथाल परगना अधिनियम में बदलाव की कोशिश की वजह से भी भाजपा को इस चुनाव में दिक्कत हो रही है। कानून में बदलाव के प्रयास के कारण बड़े पैमाने पर आंदोलन हुए, जिससे आदिवासियों को विस्थापन और पहचान खोने का डर सताने लगा था। अब उनकी सोच ये है कि अगर भाजपा वापस आई तो वो फिर से उन कानूनों को लागू करेगी, जिसे हेमंत सोरेन सरकार ने खत्म कर दिया है।
 
 

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