जब संसद पहुंचे अमर शहीद
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'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पे मिटने वालों का यही बाकि निशा होगा'। बेशक हम अमर शहीदों की चिताओं पे मेले तो खूब लगाते रहे परन्तु लज्जित करने का विषय है कि हम उन जांबाजो को शहीद का दर्जा आज तक नही दिला पाए हैं। बेशक उनका महान व्यक्तित्व हमारे किसी अलंकार का मोहताज नही है परन्तु स्वर्ग में बैठी उनकी पवित्र आत्माए हमारी अकृतज्ञनता पर अफसोस जरूर करती होंगी। 23 मार्च को पूरा देश शहीद दिवस के रूप में मनाता है परन्तु कितनी विडम्बना की बात है जिनके नाम पर हम शहीद दिवस मना रहे हैं उन्हे अधिकारिक तौर पर शहीद का दर्जा तक प्राप्त नही है।
जो व्यवहार हमारी सरकारें स्वतंत्रता सेनानियों और शहीदों के साथ करती आई है वो किसी से छुपा नही है। आज यदि हमारे शहीद देश की हालत देखने के लिए जमीन पर उतर आए तो क्या देखेंगे एक व्यंग कथा के माध्यम से प्रस्तुत कर रहा हूं। एक दिन स्वर्ग में बैठे चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंह ने सोचा चलो अपने आजाद भारत में घूम के आते हैं। देख के आते हैं कैसा है हमारे सपनों का देश और कैसी है आजाद भारत की राज व्यवस्था, दोनो संसद भवन के गेट पर प्रगट हुए और अंदर जाने के लिए आगे बढ़े तभी एक आवाज आई, "अरे कहां चल दिए"। दो मोटे-ताजे पुलिस वाले डंडा घुमाते हुए उनके पास आऐ।
एक बोला,"हां भई कित जाना है अर किस तै मिलना है"। वे बोले "हम भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद है। जिन्होने अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लडाई लड़ी थी"। पुलिस वाले मजाक समझ हंसने लगे, फिर दूसरा पुलिस वाला कान खुजाता मुह से पान थुकर बोला,"भईया अब इहां कोई अंग्रेज नही ना है, जाओ भाई किसी और से जाकर लड़ो" कहकर दोनों फिर हसने लगे। इतने में एक आवाज आई,"ओ इना नू इधर भेज, मैं करदा गल इहना नाल", दोनो को अफसर के पास भेज दिया गया। वो बोला,"हां जी कोई परमीशन, किसी मंत्री, एम.पी की चिट्ठी है तुहाडे कोल"। वे दोनो बोले,"नही कोई चिट्ठी या परमीशन नही है"।
वो बोला,"चलो कोई नही, लयाओ गांधी कडो"। वे बोले "गांधी कौन? महात्मा गांधी?", सुरक्षा कर्मी बोला "हां यार हरा, नीला गांधी"। यह गुफ्तगू अभी चल ही रही थी कि किसी ने संसद भवन में शोर मचा दिया कि बाहर भगत सिंह संग आजाद खड़े हैं। सारा मंत्री मण्डल, सांसद गेट की ओर टिड्डी दल से भागे और सीधे उनके चरणों में आ धड़ाम से गिरे। हर कोई दोनों को खींचते हुए अपने साथ ले जाना चाह रहा था। हर कोई कह रहा था, मैं हूं देश का असली और ईमानदार नेता बस मेरे साथ ही चलें आप।
एक नेता बोला, यह हम हिन्दूओं के नेता हैं, एक आवाज आई नही ये सिक्खों के नेता , एक बोला इनके साथी अशफाक उला खां थे ये हमारे रहनुमा हैं। एक बोला नही, ये तो ब्राह्मणों के नेता है। एक बोला दलितों के हैं, कोई बोला नही ये राजपूतों के हैं। कोई यादवों का, कोई उन्हें जाटों तो कोई उन्हें मराठों का नेता बता अपने साथ चलने को कहने लगा। उनमें से उन्हें एक सीधा-साधा,भोली सूरत का देश का प्रेमी सा लगा। दोनो उसके साथ चल दिए। उसने इशारा किया एक बडी सी गाड़ी आई,पास आकर रुकी। नेता ने उन्हे गाड़ी में बिठाया। भोला दिखने वाला निकला बम का गोला।
बोला,"प्रभु मेरा नाम बच्चू माधव है। आप यहां आराम से बैठो, यहां कोई देखने वाला नही है, उतारो आप भी देशभक्ति का चोला" और एक नोटों से भरा बैग उनकी ओर बढ़ा दिया। यह सब देख सुन शहीदों का क्रोध भड़क रहा था पर सोचा आगे देखें और क्या करतब करता है यह। नेता आगे बोला मैंने जनता का करोड़ों रुपया अंदर किया है, दस से ज्यादा कत्ल करे हैं। फिरौती- फराती तो इक आम बात है मेरे लिए, बहुत जनता है मेरे पीछे। सब मुझे अपना नेता मानते है और सब मुझेसे डरते हैं पर इन चुनावों में मेरी थोड़ी हालत खराब है। मेरे घोटाले लोगों के सामने आ गए हैं और इलाके में काम भी नही करवाया पर पैसा खूब बनाया है।
हाथ जोड़कर बोला आपको अभी एक जनसभा में लेकर जाऊंगा, वहां मंच से बस आप ने मेरा नाम लेकर कहना है कि बच्चू माधव ही जनता का असली सेवक है। यह असली देशभक्त और कट्टर ईमानदार है, इसी को वोट देकर संसद पहुंचाओ"। उस नोटों के बैग की ओर इशारा कर बोला, "श्रीमान यह तो कुछ भी नही,मालामाल कर दूंगा आपको, सोने ,हीरे,मोती में तोल दूंगा। आज तक देखा ना होगा इतना धन दूंगा, गाडियां, घर ले दूंगा। मिलकर जनता को लूटेंगे और ऐश करेंगे। बोलिए क्या कहते हो"। इतना सुन उन्होने नेता की ओर घूर कर देखा, बच्चू माधव डर से कापने लगा और उसके प्राण पखेरू उड़ गए। दोनो खामोश थे।
एक-दूसरे से आंख नही मिला पा रहे थे। सोच रहे थे तो बस इतना कि इन चोर उचक्कों कि खातिर ही क्या हमने स्वयं का सर्वस्व कुर्बान कर देश की आजादी के लिए सर्वोच्च बलिदान दिया था। यह आज सोचने का विषय है। हम शहीदों को श्रद्धांजलि तो देते हैं हर साल पर क्या देश उस रास्ते पर चल पाए जिसका सपना देख महापुरुषों ने खुद का बलिदान दिया था। भगत सिंह, शिवराम राजगुरु और सुखदेव को अदालती आदेश के मुताबिक 24 मार्च 1931 की सुबह फांसी लगाई जानी थी लेकिन 23 मार्च 1931 को ही इन तीनों को देर शाम करीब सात बजे फांसी लगा दी गई थी।
असल में जब से तीनों वीर सपूतों को फांसी की सजा सुनाई गई थी तब से लोग भड़क गए थे और वे तीनों वीर सपूतों को देखना चाहते थे। तीनों को फांसी को लेकर जिस तरह से लोग प्रदर्शन और विरोध कर रहे थे। अंग्रेज सरकार बुरी तरह डर गई थी। माहौल बिगड़ता देखकर ही फांसी का दिन और समय बदला गया और एक दिन पहले ही फांसी दे दी गई। करीब दो साल जेल में रहने के बाद भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को एक साथ फांसी पर चढ़ा दिया गया था। अंग्रजों से लड़ाई लड़ते हुए भगत सिंह सुखदेव और राजगुरु का बलिदान कभी भुलाया नहीं जा सकता है। आज इन तीनों सेनानियों के बलिदान के 94 साल पूरे हो चुके हैं।
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