बिल्लेश्वर महादेव मंदिर में आज भी अश्वत्थामा आते है पूजा करने

पुरवा से मात्र 3 किलोमीटर दूरी होने के बावजूद आज तक नही पहुंच सकी बिजली 

बिल्लेश्वर महादेव मंदिर में आज भी अश्वत्थामा आते है पूजा करने

मंदिर के गेट पर कभी ताला नही लगता यदि लगा दिया जाए तो अपने आप टूट जाता है

श्रीकृष्ण के हस्त निर्मित शिवलिंग की होती है पूजा

मो.अरमान विशेष संवाददाता


उन्नाव।  इस शिवलिंग में 500 वर्ष पूर्व मंदिर का निर्माण हुआ था। जो आज एक दर्जन से अधिक मंदिरों के कारण मंदिरों के समूह के रूप में विख्यात है। मंदिर के सामने स्थित धनुषाकार तालाब के संबंध में कहा जाता है कि जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति भाव से इसमें स्नान करता है उसके पापों का क्षरण होता है। इसलिए इस तालाब को "पाप क्षत कुंड" भी कहा जाता है।


   पुरवा तहसील मुख्यालय से 3 किलोमीटर पूर्व व पुरवा मौरावां रोड से 400 मी दक्षिण स्थित बिल्लेश्वर महादेव मंदिर के संबंध में किंवदंती है कि 490 वर्ष पूर्व इस स्थल पर घना जंगल था। बंजारे इसी स्थल पर स्थित एक तालाब के पास विश्राम के लिए ठहरते थे। अपनी गायों को पानी पिलाते थे। कहा जाता है कि बंजारों की एक गाय तालाब के पश्चिम की ओर ऊंचे टीले पर अक्सर खड़ी रहती थी। जब शाम को गाय को दुहा जाता था तो वह दूध नहीं देती थी। बंजारों को गाय के दूध न देने की जिज्ञासा हुई तो वह उसे स्थल पर पहुंचे जहां गाय खड़ी रहती थी। बंजारे यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए की गाय के स्तन से लगातार दूध अपने आप टपक रहा है जो भूमि में स्थित एक बिल में प्रवेश कर रहा है।

बंजारों ने कौतूहल वश उस बिल की खुदाई प्रारंभ कर दी। तो उन्हें एक शिवलिंग दिखाई पड़ा किंतु काफी खुदाई पर भी वह शिवलिंग जमीन से ना निकाला जा सका। दूसरे दिन बंजारे पुनः बिल वाले स्थान पर आए तो वह देखकर आश्चर्यचकित रह गए के बिल की मिट्टी अपने आप परिपूर्ण हो चुकी है। इस क्रम में बिल की खुदाई कार्यक्रम लगातार कई दिन तक चला। सुबह बिल स्वतः मिट्टी से परिपूर्ण मिलता था। थक हार कर बंजारों ने इस स्थल पर एक छोटे से शिवालय का निर्माण कर दिया। क्योंकि शिवलिंग बिल के अंदर था इसलिए इस मंदिर का नाम बिल के ईश्वर रख दिया गया। जो कालांतर में बिल्लेश्वर महादेव के नाम से पुकारा जाने लगा। इस शिवलिंग के विषय में कहा जाता है कि यह महाभारत कालीन है। महाभारत कालीन आख्यान है कि श्री कृष्ण भगवान मौरावां नगरी के राजा मोरध्वज की भक्ति परीक्षा लेने मौरावां आए थे। उनके साथ अर्जुन भी थे। राजा मोरध्वज और उनकी पत्नी ने साधुवेश धारी श्री कृष्ण के इस प्रस्ताव को सहर्ष मान लिया कि उनके साथ गए शेर को राजा के पुत्र का मांस चाहिए।


यह मांस राजा और रानी अपने पुत्र का काट कर देंगे। मगर शर्त थी कि आरा चलाते समय ना तो राजा और ना ही रानी का हाथ कांपे और ना ही भाव विभोर हो। शर्त के मुताबिक राजा मौरध्वज भक्ति परीक्षा में पास हुए। श्री कृष्ण और अर्जुन ने अपना असली रूप प्रकट किया और उनके पुत्र को साक्षात वापस किया। मौरावां से हस्तिनापुर को वापस जाते समय श्री कृष्ण और अर्जुन आज जहां पर मंदिर स्थित है वहीं पर रुके। श्री कृष्ण ने शिव पूजन की इच्छा प्रकट की। मिट्टी का शिवलिंग बनाया गया। शिवलिंग में प्राण प्रतिष्ठा की गई। अर्जुन को जलाभिषेक के लिए पानी नहीं मिला तो उन्होंने अपने गांडीव धनुष से भूमि पर तीर का प्रहार किया। इस प्रहार से जल का स्रोत निकला। इसी जल से शिवलिंग का अभिषेक किया गया। शिवलिंग पूजन के बाद शिवलिंग का विसर्जन करना श्री कृष्ण भूल गए। कहा जाता है की कालांतर में इसी शिवलिंग को दूध पिलाने के लिए बंजारों की गाय शिवलिंग स्थल पर आती थी। जिसकी खोज बंजारों ने बिल की खुदाई से की और बिलेश्वर महादेव मंदिर का आधारशिला तैयार किया।

बंजारों के द्वारा बिल्लेश्वर महादेव मंदिर स्थापित किए जाने की चर्चा ने इस स्थल का महत्व बढ़ा दिया। पार्थिव शिवलिंग के मूल स्थल के बजाय तालाब के पूर्व की ओर तत्कालीन समय में एक भव्य मंदिर का निर्माण कराया गया। और मुख्य मंदिर के आसपास एक दर्जन शिव मंदिर उन भक्त जनों ने भी बनवाए जिन्होंने मनौतिया मानी थी। मुख्य मंदिर के सामने धनुषाकर तालाब के संबंध में कहा जाता है कि वह "पाप क्षत कुंड" है इसमें जो व्यक्ति श्रद्धा और भक्ति भाव से स्नान करता है उसके सारे पाप कट जाते हैं। इसी तालाब के मध्य में तीर के आकार का एक पुल बना है। जिसके द्वारा भक्तजन पार्थिव शिवलिंग के मूल स्थल पर पहुंचते हैं। इस पुल पर एक भव्य शिव मंदिर भी बना हुआ है तालाब के पूर्वी छोर पर 30 से 35 सीढ़ियां बनी हुई है।

जो की भक्त जनों के स्नान के काम आती हैं। धनुषाकार तालाब में सुबह के समय खिलते कमल के पुष्पों की छटा बड़ी ही दर्शनीय एवं रोचक होती है। मंदिर परिसर साढ़े बारह बीघे में स्थित है। इसी परिसर में 6 कुंए हैं। कहा जाता है कि सावन माह के प्रत्येक सोमवार को यहां पर सफेद नाग दिखाई पड़ता है। जो कि इन्हीं कुंओ में वापस चला जाता है। महाशिवरात्रि पर क्षेत्रीय कांवरिया हजारों की संख्या में लगभग 50 किलोमीटर दूर गंगा जी से जल लाते हैं। यह कांवरिया दो दिन पूर्व ही पैदल गंगाजल लेने हेतु अपने-अपने घरों से निकल पड़ते हैं। नंगे पैर यह कांवरिया झुंडों में चलते हैं। बांस की लकड़ी में दोनों  घड़े बांधकर उनमें गंगा जल भरते हैं। रास्ते भर जयशंकर और बम भोले के उदघोष करते हैं। बिना थके यह कांवरिया शिवरात्रि के दिन शिवलिंग का गंगाजल से अभिषेक करते हैं। इस अभिषेक के दौरान बेलपत्र, पुष्प, धतूरा, जौ, गन्ने के टुकड़े भी प्रयोग किए जाते हैं। सावन भर मंदिर परिसर जयशंकर और बम भोले के उदघोष से गुंजायमान रहता है।

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