सियासी वार से जनता को क्या फायदा 

सियासी वार से जनता को क्या फायदा 

लोकसभा चुनाव चल रहे हैं आज चौथे चरण का मतदान चल रहा है। लेकिन इस चुनाव में एक दूसरे पर जितने सियासी वार चले हैं शायद इतने कभी न चले हों। लेकिन आज का मतदाता सब जानता है और उसके मन में पहले से तय होता है कि उसका वोट किधर जाना है। जनसभा या रोड शो में उमड़ी भीड़ को आप जीत का पैमाना नहीं मान सकते पिछले विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने पूरे प्रदेश में रथ यात्रा की थी और उन्हें देखने के लिए विशाल जनसमूह उमड़ा था लेकिन नतीजा क्या हुआ आपके सामने है। अभी कल ही जेल से निकले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 75 वर्ष के होने जा रहे हैं और यदि भारतीय जनता पार्टी जीतती है तो वह केवल एक साल और प्रधानमंत्री पद पर रहेंगे उसके बाद वह अमित शाह को सरकार की बागडोर सौंप देंगे।
 
यह सभी जानते हैं कि भारतीय जनता पार्टी में या देश में नरेंद्र मोदी की अहमियत कितनी है। अरविंद केजरीवाल के इस बयान से भारतीय जनता पार्टी घबड़ा गई। अमित शाह का तुरंत बयान आया कि नरेंद्र मोदी अपना पांच वर्षों का कार्यकाल पूरा करेंगे। भारतीय जनता पार्टी के संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि 75 वर्ष के होने पर प्रधानमंत्री पद पर नहीं रह सकते। कहने का मतलब है कि इन सब बातों से जनता को क्या लेना देना है। आप जनता के हित की बात क्यों नहीं करते। क्या केवल आरोप प्रत्यारोप की ही राजनीति अब चलनी है। क्या देश में अब मुद्दे नहीं बचे हैं। लेकिन राजनैतिक पार्टियां यह जानती हैं कि मुद्दों की बात करके चुनाव नहीं जीता जा सकता। और इसीलिए अब मतदाताओं में भय व्याप्त कराके ही हम वोट पा सकते हैं।
 
जनता अब दो तरह से आंकलन करती है एक यह कि जिस पार्टी के प्रत्याशी को हम वोट दे रहे हैं तो उसकी विचारधारा से हमारी विचारधारा मेल खाती है या नहीं और दूसरा जिस प्रत्याशी को हम वोट दे रहे हैं उसने हमारे क्षेत्र में कितने विकास कार्य किए और जब हमने कोई मदद मांगी तो उसने कितनी सुनी। इसलिए राजनैतिक दल जनता को बहलाना बंद करके मुद्दे की बात करें तो जनता पर ज्यादा असर होगा। कुछ एक को छोड़ दें तो जनता की निगाह में कोई भी किसी भी पार्टी का प्रत्याशी ऐसा नहीं होता जो शत् प्रतिशत खरा उतरा हो और ऐसे में जनता यह सोचने के लिए मजबूर हो जाती है कि आखिरकार वह अपना वोट दे तो किसे दे। शायद नोटा का आप्शन इसी लिए दिया गया है। लेकिन मेरी समझ से यह नोटा का आप्शन सही नहीं है हमको वोट किसी न किसी प्रत्याशी को तो देना ही चाहिए। आज की राजनीति में एक दूसरे पर ज्यादा से ज्यादा कीचड़ उछाला जा रहा है। मतलब साफ है कि आप हमसे ज्यादा खराब हैं यह समझाने की कोशिश की जा रही है। यह जनता के चुनने के लिए रहने दीजिए। आप केवल अपनी खूबियां गिनवाइये कि आप सत्ता में रहे तो क्या क्या किया और आगे सत्ता में आएंगे तो क्या क्या करेंगे।
 
सियासी वार चारों तरफ से हो रहे हैं कोई किसी से पीछे नहीं है लेकिन इससे जनता का क्या भला होने वाला है। आजकल मेच्योर आदमी ने राजनेताओं की रैलियों में जाना बंद कर दिया है। रैली में वही भीड़ जा रही है जो किसी न किसी रूप में उस पार्टी से जुड़ी है। या कहीं न कहीं उसमें उसका हित है। पहले भी नेताओं के भाषण होते थे रैलियां होती थीं लोग दूर-दूर से उनको सुनने आते थे लेकिन तब नेताओं की बातों में बजन होता था। तालियां बजाने के लिए इशारा नहीं करना पड़ता था तालियां अपने आप बजती थीं। और एक आज का दौर है जहां केवल आरोप प्रत्यारोप की राजनीति हावी है। किसी पार्टी ने यदि कुछ अच्छा किया है तो दूसरी पार्टियां उसमें बुराइयां ढूंढने के पूरे प्रयास में लग जातीं हैं। और यदि आप किसी रैली में किसी भी नेता के भाषण सुने तो उसका ज्यादातर समय दूसरी पार्टी की बुराई करने में ही निकल जाता है। केवल एक दूसरे पर कीचड़ उछालने की ही राजनीति हो रही है। यदि किसी नेता से पूछ भी लिया जाए कि आपने अपने शासनकाल में क्या किया तो वह अपने कार्यों को बताने की जगह दूसरे की बुराइयां गिनाना शुरू कर देगा। किसने क्या किया यह आंकलन जनता को करने दीजिए। आप केवल दूसरे को नीचा दिखाकर वोट हासिल नहीं कर सकते। आपको अपने काम भी गिनाने होंगे नहीं तो इस राजनीति में जनता पिसती रहेगी और नेता मौज करते रहेंगे।
 
आज हर नेता गली गली, शहर शहर की ख़ाक छान रहा है ज्यादा से ज्यादा जनसंपर्क करने की कोशिश कर रहा है लेकिन जीतने के बाद पांच साल में शायद ही आपको एक बार भी इनके दर्शन हुए हों। नेता को पहचानने का यह एक पैमाना हो सकता है। आपको किसी भी क्षेत्र में जाने के लिए उस क्षेत्र के विधायक, पार्षद और स्थानीय लोगों की मदद लेनी पड़ रही है क्योंकि उस क्षेत्र में न तो आप किसी को जानते हैं और न ही लोग आपको जानते हैं। आप चुनाव जीतने के बाद बंद कार में फर्राटे से निकल जाते हैं और लोग आपको देखते हैं। जनप्रतिनिधि का मतलब ही आज के नेता भूल चुके हैं। इसमें हमारा भी दोष कम नहीं है हम भी बार बार उन्हें जिताकर सदन में भेजने का कार्य करते हैं।
 
जो जनता की नहीं सुनता हो ऐसों को सबक सिखाना जरूरी है। क्यों कि यदि हम ऐसे ही आंख बंद करके मतदान करते रहेंगे तो हम स्वयं दोषी कहलाएंगे। शिक्षा, महंगाई, भ्रष्टाचार, और बेरोजगारी पर आज कोई बात नहीं कर रहा है। जातियों और धर्मों में लोगों को बांट दिया गया है। हम अपनी अच्छाई और बुराई को समझ नहीं पा रहे हैं। इसलिए हमको वोट अवश्य करना चाहिए। लेकिन बहुत कुछ सोच समझ कर क्यों की आने वाले पांच सालों में हमें इन्हीं से उम्मीद होगी। यदि आप जाति और धर्म को आगे मानते हैं तो उसपर वोट कीजिए और यदि हम समाज के विकास को चाहते हैं तो हमें बहुत कुछ सोचना होगा। क्यों आज जो राजनीति का दौर चल रहा है यह हमको बहुत पीछे ले जाएगा।
 
जितेन्द्र सिंह पत्रकार 

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