महिला, माल और मानसिकता का सवाल

महिला, माल और मानसिकता का सवाल

तमाम बड़ी खबरों के बीच एक छोटी लेकिन महत्वपूर्ण खबर ये है कि मुंबई की मुंबादेवी सीट से शिवसेना की उम्मीदवार शाइना एनसी ने शिवसेना (यूबीटी) सांसद अरविंद सावंत के खिलाफ एफआईआर दर्ज कराई है  सावंत ने शिवसेना उम्मीदवार के लिए 'इंपोर्टेड माल' शब्द का इस्तेमाल किया जिससे भारी विवाद खड़ा हो गया।  उन्होंने कहा कि मैं माल नहीं हूं, मैं महिला हूं. उद्धव ठाकरे चुप हैं, नाना पटोले चुप हैं लेकिन मुंबई की महिलाएं चुप नहीं रहेंगी। सवाल शाइना ऐंसी का नहीं बल्कि राजनीति में काम करने वाली उन तमाम महिलाओं का भी है जो आजादी के 77  साल बाद भी 'महिला नहीं बन पायी हैं ,उन्हें आज भी ' माल ' समझा जा रहा है।

शाइना एनसी के खिलाफ की गयी इस अशोभनीय टिप्पणी पर देश कि तमाम महिलाओं को जाग जाना चाहिए। महिलाओं को माल समझने की  मानसिक बीमारी हमारे पुरुष प्रधान  समाज में कोई यकायक पैदा नहीं हुई है।  ये बीमारी बहुत पुरानी है ,फर्क सिर्फ इतना है कि ये कभी उभर कर सतह पर आ जाती है और कभी इसे दबा लिया जाता है।  देश का शायद ही कोई ऐसा राजनीतिक दल होगा जिस्मने महिलाओं को माल न समझा जाता हो ।  या माल की तरह इस्तेमाल न किया जाता हो। राजनीति  में महिलाओं कि कम भागीदारी की एक वजह ये भी है कि उन्हें हमारा पुरुष प्रधान समाज महिला समझने और मानने के लिए तैयार ही नहीं है। महिलाएं माल क्यों मानी और समझी जातीं हैं  ? ये जानने के लिए किसी शोध कि जरूरत नहीं है। हमने और हमारे समाज ने महिलाओं के आसपास जो जाल बिछा रखा है उसकी वजह से उनकी हैसियत में कोई तब्दीली नहीं आयी।  इंदिरा गाँधी  से लेकर ममता बनर्जी और मायावती ही नहीं बल्कि आतिशी जैसी महिलाएं राजनीति में शीर्ष पर पहुंचीं ,लेकिन वे अपवाद हैं।  उनके खिलाफ क्या कुछ अभद्र टिप्पणीयां अतीत में नहीं कि गयीं ?

मुझे अफ़सोस इस बात का है कि मुंबई की नागपाड़ा थाने एफआईआर दर्ज कराने के बाद शाइना एनसी ने कहा, "सेक्शन 79, सेक्शन 356 (2) के तहत एफआईआर दर्ज हुआ है।  उन्होंने गलत शब्दों का इस्तेमाल किया. मैं यहां सक्रिय रूप से काम करने के लिए आई हूं।  मेरे काम के ऊपर चर्चा करनी हैं तो करें, मुझे इंपोर्टेड माल कभी नहीं बोलें. कानून को अपना काम करने दीजिए।  मुझे जो करना था मैंने कर दिया."। दरअसल शाइना ऐंसी अमले में अपना पिंड छुड़ाना चाहतीं हैं जबकि उन्हें इस मामले को अंजाम तक ले जाना चाहिए था।

मै तो यहां तक कहूंगा कि उन्हें और उनकी पार्टी को ' महिला और माल ' जैसी अभद्र ,नीच, घृणित टिप्पणी को ही चुनावी मुद्दा बना लेना चाहिए था। क़ानून इस मामले में कुछ नहीं कर पायेगा। शाइनी से पहले इसी तरह कि टिप्पणियां कांग्रेस कि नेता श्रीमती प्रियंका वाड्रा के बारे में भी की गयी।  ये टिप्पणियां तब सामने आयीं  जब कांग्रेस ने प्रियंका  को वायनाड से लोकसभा उप चुनाव  में अपना प्रत्याशी बनाया।महिलाओं को यदि माल न समझा जाता तो क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि हमारे नेता महिलाओं को जर्सी गाय , एक करोड़ कि बारवाला या राक्षसी जैसे सम्बोधन सड़क से लेकर संसद तक दे सकते थे।  महिलाओं को माल समझने की मानसिकता का ही परिणाम है कि देश में तंदूर काण्ड हुए। शैला मसूद कांड हुए।  राजनीती में सक्रिय महिलाओं के साथ जितनी जघन्यता पिछले कुछ दशकों  में बरती  गयी है उसके एक नहीं असंख्य उदाहरण है।

महिलाओं के साथ  सबसे ज्यादा अश्लील,अभद्र और घृणित टिप्पणियां करने वाले राजनीतिक दलों ने आजतक  न अपनी पार्टी के शीर्ष पद पर महिलाओं को बैठने दिया और न उन्हें राजनीती में पांव जमाने दिए ।  राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया इसका ज्वलंत उदाहरण है।  कांग्रेस छोड़कर तृण मूल कांग्रेस बनाने वालीं ममता बनर्जी हों या बसपा की सुप्रीमो बहन मायावती सबके साथ ठीक वैसा ही व्यवहार हुआ है जैसा की शाइना ऐंसी के साथ हुआ है।  महिलाओं को राजनीति में सम्मानजनक स्थान दिलाने के नाम पर नारी शक्ति वंदन  क़ानून बनाने वाले दलों में भी ऐसे तमाम नेता हैं जो महिलाओं को ' माल ' ही समझते हैं। निरक्षर श्रीमती रेवड़ी देवी हों या साक्षर ही नहीं शिक्षित प्रियंका वाड्रा सबकी दशा एक जैसी है।  श्रीमती मीरा कुमार या सुमित्रा ताई जैसी महिलाएं इसका अपवाद मानी जा सकतीं हैं किन्तु उन्हें माल से महिला बनने के लिए कितना संघर्ष करना पड़ा ये वे ही जानतीं हैं ,लेकिन बोलतीं नहीं हैं।

भारतीय राजनीति में सक्रिय महिलाएं आज भी माल समझी जातीं हैं इसका सबसे बड़ा उदाहरण संसद में उनकी भागीदारी को लेकर समझा जा सकता है। महिला सांसदों के मामले में दुनिया के कुल 186 देशों में भारत 143वें पायदान पर है। जुलाई 2023 तक लोकसभा में महिलाओं की नुमाइंदगी 15.1 प्रतिशत थी जबकि राज्यसभा में 13.8 प्रतिशत है। महिलाओं को माल समझने के आरोपों से बचने के लिए हम अक्सर अतीत का सहारा लेते हैं और बताते हैं कि भारत में स्वतंत्रता आंदोलन से ही राजनीतिक क्षेत्र में महिलाओं की सक्रिय भूमिका देखी जाती रही है। देश का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संगठन आरएसएस  पिछली ९९ साल में एक भी महिला को संघ प्रमुख नहीं बना पाया।

स्वतंत्रता आंदोलन में सरोजिनी नायडू, अरूणा आसफ अली, विजय लक्ष्मी पंडित जैसी महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका रही हैं। आजादी के बाद भारत की प्रथम महिला प्रधानमंत्री बनने का गौरव श्रीमती इंदिरा गांधी को प्राप्त हुआ जो 1966-1977 तक और फिर 1980-1984 तक देश की प्रधानमंत्री रहीं। भारत में प्रथम महिला राष्ट्रपति श्रीमती प्रतिभा देवी बनीं।आज भी राष्ट्रपति के पद पर श्रीमती द्रोपदी मुर्मू बैठीं हैं। लेकिन अपनी योग्यता से ज्यादा उनके साथ उनकी पार्टी का जातीय गणित   है। मौजूदा संसद में महिलाओं की संख्या की बात करें तो लोकसभा में 78 और राज्यसभा में 24 महिला सांसद मौजूद है। आजादी के बाद पहली बार महिला सांसदों की संख्या 100 का आंकड़ा पार कर गई है। आंकड़ें आज भी बहुत संतोषजनक नहीं हैं क्योंकि संख्या के आधार पर यह अनुपातिक प्रतिनिधित्त्व के आस-पास भी नहीं है।

हमसे बेहतर स्थिति में तो  पड़ोसी देश बांग्लादेश है जहां राजनीती  में 21 प्रतिशत कि  दर है जो भारत के मुकाबले अधिक है। मुंबई की साइना एनसी से लेकर श्रीमती सोनिया गाँधी तक यदि गिनने बैठें तो हकीकत सामने आ जाएगी। सोनिया गांधी भारतीय राजनीति की सबसे ताकवर शख्सियतों में से एक मानी जाती हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या के बाद सोनिया ने अपने बच्चों की खातिर राजनीति से दूरी बना ली थी, लेकिन 1996 में कांग्रेस की हार के बाद पार्टी की डूबती नैया को पार लगाने के लिए सोनिया ने पार्टी की कमान संभाली थी। जयललिता और मेहबूबा मुफ़्ती जैसी महिलाओं ने भी राजनीती में सक्रिय रहते हुए कम कीमत अदा नहीं की।

राजनीति में ही नहीं बल्कि अन्य क्षेत्रों में भी महिलाओं को महिला कम ही समझा जाता है।  वे कल भी ' माल 'समझी जातीं थीं और आज भी माल ही समझी जा रहीं है।हरियाणा की महिला पहलवानों के साथ हुए व्यवहार को ये देश शायद अभी भूला नहीं होगा।  महिलाओं को इस दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति से बाहर निकलने के लिए पूरे समाज को सजग होना होगा,खासकर महिलाओं को आगे बढ़कर अपनी ' माल ' वाली छवि से मुक्ति पाने के लिए संघर्ष करना होग।  ये संघर्ष आजादी कि लड़ाई से ज्यादा लंबा भी चल सकता है ,लेकिन ये शुरू तो हो ? महलाओं के प्रति समाज के व्यवहार को देश के मशहूर शायर मजरूह सुल्तानपुरी ने १९७० में ही पहचान लिया थ।  वे फिल्म दस्तक के लिए एक गजल लिख गए थे जो शाइना एनसी प्रसंग में मुझे बरबस याद आ गयी।  मजरूह साहब ने लिखा था-
'हम हैं मता-ए-कूचा-ओ-बाज़ार की तरह
उठती है हर निगाह ख़रीदार की तरह।
महिलाओं के प्रति समाज का ये नजरिया कब और कैसे बदलेगा ,ये यक्ष प्रश्न है। आइये हम सब मिलकर इस प्रश्न का उत्तर खोजें।
राकेश अचल 

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