संगीत की तानों के सौ साल, और सियासत

संगीत की तानों के सौ साल, और सियासत

मध्यप्रदेश के ग्वालियर शहर में होने वाले प्रतिष्ठित तानसेन संगीत समारोह के सौ साल पूरे हो गए ,लेकिन इस सौ साला [शताब्दी ]समारोह में समारोह के मंच पर संगीतज्ञों के बजाय राजनेता ही प्रतिष्ठित हुए,तानसेन और उनकी बिरादरी पार्श्व में चली गयी।  वजह केवल एक कि समारोह कल भी राज्याश्रित था और आज भी राज्याश्रित है। तानसेन मुगल सम्राट अकबर   के दरबार के नौ रत्नों में से एक थे। देश में संगीत के तमाम समारोह होते हैं ,तानसेन समारोह  भी एक है। भारतीय शास्त्रीय संगीत  का ये समारोह इसलिए अनूठा है क्योंकि यहां आने के लिए हर संगीतज्ञ  लालायित होता है।

 इस समारोह की उम्र तो सौ साल से ज्यादा है किन्तु राज्याश्रित आयजन के हिसाब से इसके सौ साल 2024 में हुए अर्थात ये समारोह राज्य की मदद से 1924  में हुआ ,हालाँकि इसके आयोजन का सिलसिला इससे भी कहीं ज्यादा पुराना है। इस समारोह में पिछले 44 साल से तानसेन सम्मान देने की भी शुरुवात की गयी, लेकिन इस सम्मान का भी भगवाकरण कर दिया गया। उम्मीद थी की तानसेन सम्मान समारोह का शताब्दी वर्ष यादगार आयोजन होगा ,लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। तानसेन समारोह का आगाज संगीत  के प्रति आस्थावान नगर वधुएं किया करतीं थीं।

वे बिना तामझाम के तानसेन की हजीरा स्थित समाधि स्थल पर आतीं और दो-तीन दिन यहीं डेरा लगाकर नाच-गाकर तानसेन के प्रति अपनी श्रृद्धांजलि अर्पित करती थीं। बाद में तत्कालीन रियासत के सिंधिया शासकों को इस गुमानं आयोजन की खबर मिली तो रियासत की और से इस आयोजन के लिए एक कमेटी बनाकर राज सहायता दी जाने लगी।  देश  भर के संगीतज्ञ बिना किसी औपचारिक ामान्तरण के इस आयोजन में आते ,अपनी हाजरी लगते और वापस लौट जाते। ग्वालियर की रसिक जनता को तानसेन समारोह के आयोजन की तिथियां बताने की जरूरत नहीं पड़ती थी।

मध्यप्रदेश बनने के बाद इस आयोजन की जिम्मेदारी मध्यप्रदेश सरकार ने  जनसम्पर्क विभाग को सौंप दी गयी।  मप्र शासन इस समारोह के लिए ग्वालियर में सभी जरूरी इंतजाम करती, सांगितज्ञों को न्यौता देकर बुलाती और उन्हें नाममात्र का मानदेय भी देती।  मुझे याद है की 1984  तक देश के तमाम नामचीन्ह कलाकर इस समारोह में शामिल होने आते थे और बिना किसी समय सीमा के देर रात  तक गाते-बजाते थे।  समारोह में तब सुविधाएं नाममात्र की हुआ करतीं थी।  अधिकांश संगीतज्ञ अपने शिष्यों के घर रुकते थे, कुछ को ही होटल की सुविधा दी जाती थी। 1980  में सरकार ने तानसेन सम्मान देने का श्रीगणेश किया। तब सम्मान की राशि मात्र 5000  रूपये थी।

तानसेन समारोह के सौ वर्षों की यात्रा में से कम से कम 50  साल की यात्रा का मैं चश्मदीद हूँ ।  मेरे जैसे सैकड़ों लोग ग्वालियर में हैं ,अनेक तो ऐसे भी हैं जिन्हें समारोह के सत्तर-अस्सी वर्ष तक की स्मृतियाँ हैं। मैंने इस समारोह में बीती सदी के और इस सदी के तमाम नामचीन्ह और शीर्षस्थ संगीतज्ञों  को देखा और सुना है । और आज इसी समारोह में देश के तमाम शीर्षस्थ संगीतज्ञ दुर्लभ हो गए हैं।  न आयोजक उन्हें बुला पाते हैं और न वे आते हैं ,क्योंकि एक तो उनका मानदेय आड़े आ जाता है और कभी-कभी आयोजन समिति यानि सरकार का व्यवहार सांगितगों को आहत करता है।

मुझे यद् है कि तानसेन समारोह में शामिल होने के लिए पद्मविभूषण संगीतज्ञ पंडित कृष्णराव शंकर पंडित अपने तांगे में बैठकर आया करते थे। उन्होंने कभी भी आयोजनकर्ताओं से कार नहीं मांगी। एक जमाना था जब संगीत रसिकों को समारोह स्थल तक लाने और वापस छोड़ने के लिए स्थानीय प्रशासन सिटी बसों का निशुल्क इंतजाम करता था, लेकिन अब जमाना बदल गया है। समारोह की चमक -दमक विश्व स्तरीय हो गयी है लेकिन समारोह के बजट का बड़ा हिस्सा इसी चमक-दमक पर खर्च होता है। संगतज्ञों और कला रसिकों पर बहुत कम खर्च किया जाता है। संगीतज्ञों के साथ सरकार का व्यवहार भी व्यावसायिक  हो गया है। आज जितना खर्च केवल मंच   सज्जा पर होता है ,एक जमाने में उतने पैसे में पूरा समारोह हो जाता था।

तानसेन की आत्मा अब समारोह से नदारद नजर आती है। तानसेन समारोह के शताब्दी समारोह के मौके पर हालांकि विशेष स्मारिका का प्रकाशन हुआ, लघु वृत्तचित्र भी बना, प्रदर्शनियां  भी लगायी गयीं ,लेकिन सरकार ने इस मौके को यादगार बनाने का कोई उपाय नहीं किया। ये मौक़ा था जब देश में मौजूद तानसेन सम्मान से अलंकृत सभी संगीतज्ञों   को एक बार फिर मंचासीन किया जा सकता था। ये मौक़ा था जब नेतागण संगीत समारोह के उद्घाटन के लिए देश के किसी शीर्षस्थ संगीतज्ञ को आमंत्रित कर सकते थे ,लेकिन ऐसा नहीं हुआ। तानसेन समारोह के शताब्दी समारोह के मंच पर वे ही खददरधारी नेता,मंत्री,मुख्यमनत्री और केंद्रीय मंत्री नमूदार हुए जो कभी लेडी किलर कहे जाते हैं तो कभी दस हजर करोड़ की डील करने वाले। जिन्हें संगीत का ककहरा नहीं आता।

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तानसेन  शताब्दी समारोह की आलोचना का मेरा कोई मकसद  नहीं है। आलोचना करने से समारोह के स्वरूप पर कोई असर भी नहीं होना क्योंकि मैं ये सब पहले करके देख चूका हूँ। तानसेन समारोह हो रहा है, ये ही बड़ी बात है अन्यथा आज तो वो दौर है जब तानसेन के मियां तानसेन होने का बहाना बनाकर भी इस समारोह से सरकार हाथ खींच सकती है। सरकार की तानसेन पर कृपा है ,ग्वालियर पर अहसान है कि  सरकार ने इस समारोह के  बजट में कटौती नहीं की। मुख्यमंत्री जी इसके लिए समय निकालकर ग्वालियर आये। अन्यथा एक जमाना था  कि  प्रदेश के तमाम मुख्यमंत्री इस समारोह में आने से सिर्फ इस्सलिये कतराते थे क्योंकि उनसे कहा जाता था कि  जो इस समारोह के उद्घाटन के लिए आया उसकी कुर्सी बची नहीं।

कल का तानसेन समारोह आज के तानसेन समारोह से एकदम भिन्न है। पहले समारोह बाबुओं के हाथ में नहीं था,स्थानीय संगीतज्ञ परिवारों की उसमें सक्रिय भागीदारी थी। श्रोताओं की सीधी भागीदारी थी ।  तब समारोह भले ही वैश्विक नहीं था लेकिन अब समारोह में विदेशी संगीतज्ञों के बजाय विदेशी आर्क्रेष्ट्रा आमंत्रित किये जाने लगे है।  शताब्दी समारोह के बहाने सरकार ने दिल्ली समेत देश के अनेक शहरों में तानसेन को याद किया। लेकिन इस शताब्दी वर्ष को यादगार बनाने के लिए एक डाक टिकिट जारी करने के अलावा और कोई जतन नहीं किया गया।

ये मौक़ा था जब तानसेन स्मारक,तानसेन संगीत  पीठ  की स्थापना या ,तानसेन कलाबीथिका के विस्तार का संकल्प लिया जा सकता था। तानसेन समारोह स्थल को अतिक्रमण मुक्त कार उसे और ज्यादा आकर्षक तथा सुविधाजनक बनाया जा सकता था लेकिन इसमें स्थानीय राजनीति आड़े आजाती ह।  तानसेन समाधि कि सामने अतिक्रमण कर बनाये गए बाजार इस स्थल की भव्यता पर बदनुमा दाग जैसे हैं। ग्वालियर के संगीत  विश्व विद्यालय का नाम तानसेन को समर्पित  किया जा सकता था ,लेकिन ऐसा करता कौन ।  संगीत विश्व विद्यालय तो पहले से राजपरिवारों के नाम चढ़ाया जा चुका है। बहरहाल तानसेन समारोह आपके लिए कल भी एक सुखद घटना थी और आज भी है ,शायद कल भी रहे।

 

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