सरकारी नौकरियों के लिए बीच में नहीं बदले जा सकते भर्ती नियम-। सुप्रीम कोर्ट।
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नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने गुरुवार को सरकारी नौकरियों में भर्ती को लेकर बड़ा फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि सरकारी नौकरियों के लिए भर्ती नियमों को बीच में नहीं बदला जा सकता। उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में यह भी कहा कि सरकारी नौकरियों के लिए चयन नियम भर्ती प्रक्रिया शुरू होने से पहले तय किए जाने चाहिए।
संविधान पीठ ने कहा कि सरकारी
नौकरियों में चयन के नियमों या एलीजिबिलिटी क्राइटेरिया को बीच में या भर्ती प्रक्रिया शुरू होने के बाद तब तक नहीं बदला जा सकता जब तक कि नियम इसकी अनुमति न दें। न्यायालय ने कहा कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति के नियमों में बीच में तब तक बदलाव नहीं किया जा सकता जब तक कि ऐसा निर्धारित न किया गया हो। सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली पांच न्यायाधीशों की पीठ ने कहा कि भर्ती प्रक्रिया शुरू होने से पहले निर्धारित किए जा चुके नियमों से बीच में छेड़छाड़ नहीं की जा सकती। पीठ में जस्टिस हृषिकेश रॉय, जस्टिस पीएस नरसिम्हा, जस्टिस पंकज मिथल और जस्टिस मनोज मिश्रा भी शामिल थे।पीठ ने जुलाई 2023 में इस मामले पर फैसला सुरक्षित रखने के बाद आज फैसला सुनाया।
पीठ ने कहा कि चयन नियम मनमाने नहीं बल्कि संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुरूप होने चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने सर्वसम्मति से कहा कि पारदर्शिता और गैर-भेदभाव सार्वजनिक भर्ती प्रक्रिया की पहचान होनी चाहिए। बीच में नियमों में बदलाव करके उम्मीदवारों को हैरान- परेशान नहीं किया जाना चाहिए।
अदालत के समक्ष प्रस्तुत मामले में यह सवाल था कि क्या किसी सार्वजनिक पद पर नियुक्ति के मानदंडों को संबंधित प्राधिकारियों द्वारा चयन प्रक्रिया के बीच में या उसके शुरू होने के बाद बदला जा सकता है। दूसरे शब्दों में, सवाल यह था कि क्या नौकरी चयन प्रक्रिया के नियमों को बीच में बदला जा सकता है।
सुप्रीम कोर्ट ने आज अपने फैसले में के. मंजूश्री आदि बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (2008) के मामले में सर्वोच्च न्यायालय के पुराने फैसले पर जोर दिया, जिसमें कहा गया था कि भर्ती प्रक्रिया के नियमों को बीच में नहीं बदला जा सकता।
यह मामला राजस्थान हाई कोर्ट के कर्मचारियों के लिए तेरह अनुवादक पदों को भरने की भर्ती प्रक्रिया से संबंधित था। उम्मीदवारों को एक लिखित परीक्षा और उसके बाद व्यक्तिगत साक्षात्कार देना था। 21 अभ्यर्थी इसमें शामिल हुए थे। उनमें से केवल तीन को ही उच्च न्यायालय (प्रशासनिक पक्ष) द्वारा सफल घोषित किया गया। बाद में पता चला कि उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश ने आदेश दिया था कि पदों के लिए केवल उन्हीं अभ्यर्थियों का चयन किया जाना चाहिए जिन्होंने कम से कम 75 प्रतिशत अंक प्राप्त किए हों।
जब भर्ती प्रक्रिया को पहली बार हाई कोर्ट ने अधिसूचित किया था, तब 75 प्रतिशत मानदंड का उल्लेख नहीं किया गया था।
इस संशोधित मानदंड को लागू करने पर ही तीन उम्मीदवारों का चयन किया गया और बाकी उम्मीदवारों को छोड़ दिया गया। जिसके बाद तीन असफल अभ्यर्थियों ने उच्च न्यायालय में रिट याचिका दायर कर इस परिणाम को चुनौती दी, जिसे मार्च 2010 में खारिज कर दिया गया। जिसके बाद उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
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