कविता

संजीव-नी।

कविता

प्रभु पता बता सका न कोई।
 
बीत जाती है सदियां
बदल जाते हैं युग
पर नहीं विस्मृत हो रहा
प्रभु रूप अनोखा तुम्हारा।
 
झर जाती पंखुरियाँ
उड़ उड़ जाती सुगंध
रूप ,सौंदर्य जिसका हमें घमंड
मिट जाते हैं सदैव काल के संग।
 
युग अनेक बीत गए
लगते तुमने नित नए नए,
फूलों से ताजा ताजा
कलियों से खिले खिले।
 
ओस के कणों से बिखरे
हर घड़ी मन आंखों में
उभरते नए रूप तुम्हारे
जीवन नैया चलती इसी सहारे।
 
यादों में डूबता रहता
जैसी नदियां सागर में
शब्द भरे हो जैसे गाघर में
नयन प्यासे राधा के आगर में।
 
नाम लेता तेरा जो भी
प्रिय होता मुझे वही,
पर बता सका न कोई
प्रभु तुम्हारा पता सही-सही
मन को तृप्त न कर सका कोई।
 
प्रभु एक बार दर्शन दो,
धन्य भाग हो जाए हमारे।
 
संजीव ठाकुर,

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