क्या दिल्ली में सत्ता के साथ व्यवस्था बदलेगी
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अन्ना हजारे के नेतृत्व और उनके आमरण अनशन के संकल्प के साथ 2011 के अगस्त महीने में भ्रष्टाचार और लोकपाल के मुद्दे पर दिल्ली के रामलीला मैदान से एक देशव्यापी आंदोलन आरंभ हुआ। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना की इस मुहिम में किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल, कुमार विश्वास, शशिभूषण, प्रशांत भूषण, बाबा रामदेव एवं अन्य समाजसेवी शामिल हुए। इस आंदोलन ने तत्कालीन केंद्र की कांग्रेस सरकार और दिल्ली कांग्रेस सरकार की जड़े हिला कर रख दी। इसी अन्ना आंदोलन से सुर्खियों में आए अरविंद केजरीवाल ने आंदोलन से जुड़े कुछ सहयोगियों की मदद से परन्तु अन्ना की रजामंदी के बगैर एक राजनीतिक दल 26 नवम्बर 2012 को आम आदमी पार्टी के नाम से बनाया।
बच्चो की कसम भी खाई, कहा ना सरकारी घर लूंगा, ना गाड़ी लूंगा, ना सिक्योरिटी लूंगा आम आदमी हूं आम आदमी की तरह रहूँगा। भ्रष्टाचार मुक्त भारत का नारा बुलंद कर कट्टर ईमानदार की छवि के साथ अरविंद केजरीवाल एण्ड पार्टी ने चुनाव लड़ा और अप्रत्याशित प्रदर्शन करते हुए 2013 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में झाड़ू चुनाव चिन्ह के साथ 28 सीटों पर कब्जा कर लिया। कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में नही था। कांग्रेस के समर्थन के साथ आप ने सरकार बनाई। केजरीवाल उस सरकार में मुख्यमंत्री बने। लेकिन 49 दिनों के बाद कांग्रेस पर असहयोग के आरोप लगा अरविंद केजरीवाल की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया। इसके बाद अन्ना आंदोलन से उठा यह हवा का झोंका तूफान में बदल गया।
देश में मोदी लहर चल रही थी परन्तु 2015 में दिल्ली विधानसभा चुनाव में फ्री बिजली, फ्री पानी, स्वास्थ्य सुविधाए, अच्छे स्कूलों आदि का वादा कर केजरीवाल की आप ने कुल 70 विधानसभा सीटों में से 67 सीटें जीत सभी पार्टियों का सूपड़ा साफ कर पूरे 5 साल सरकार चलाई। देश में मोदी और भाजपा की लहर प्रचण्ड हो गई थी। बड़े-बड़े सूरमा धराशाई हो रहे थे। भाजपा अपने सहयोगीयों के साथ ज्यादातर राज्यों में विधानसभा चुनाव जीत रही थी।
कांग्रेस बिल्कुल हाशिए पर चली गई। ऐसे समय में भी 2019 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में अरविंद केजरीवाल की आप ने नरेंद्र मोदी के अश्वमेध यज्ञ के घोड़े की लगाम थाम भाजपा को जबरदस्त पटखनी दी और दिल्ली की 70 में से 62 सीटों पर कब्जा कर अपना दम दिखाया था। पूरे देश में केजरीवाल का नाम गूंजने लगा। दिल्ली के बाहर भी पार्टी चुनाव लड़े और कुछ राज्यों में कुछ सीटें भी जीती। आप को राष्ट्रीय पार्टी का दर्जा मिला।
पंजाब विधानसभा चुनावों में आप ने अन्य दलों को जड़ से उखाड फैंका और दिल्ली की तरह वहां भी एकतरफा प्रचंड जीत के साथ सरकार बनाई। इस जीत ने केजरीवाल को एक ब्रांड बना दिया। शायद यह खुशियाँ केजरीवाल की किस्मत मे आखिरी खुशी की तरह थी। इसके बाद उनके बुरे दौर की शुरूआत हुई। एल.जी से टकराव, सहयोगीयों और केजरीवाल पर भ्रष्टाचार के इल्जाम व ईडी के शिकंजे ने केजरीवाल सहित आप के प्रमुख नेताओं को जेल के पीछे पहुंचा दिया। साथ ही साथ मुख्यमंत्री के अलीशान शीशमहल का मुद्दा गर्मा गया। लोग खुद को ठगा सा महसूस करने लगा।
उन्हे लगा आम आदमी बन कर जो सत्ता में आया था वो अब राजा- महाराजा वाला शाही जीवन जी रहा है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार विकास कर नही पा रही थी। बस मामला फ्री बिजली-पानी, स्कूलों तक रह गया था। मोहल्ला क्लीनिक बदहाल हो गए थे। प्रदूषित हवा, पानी, बरसातों में डूबती दिल्ली, रोजाना सड़कों पर जाम और अन्य समस्याओ से दिल्ली सरकार के खिलाफ लोगों में गुस्सा भड़क रहा था। केंद्र की भाजपा सरकार भी लोगों का यह गुस्सा भड़काने में अहम भूमिका एल.जी के हस्तक्षेप द्वारा निभाती रही। केंद्र की एजेंसियों के हत्थे चढ़ने के बाद केजरीवाल ने बहुत कुछ गंवाया।
भ्रष्टाचार के इल्जामों ने ‘ब्रांड केजरीवाल' के साथ जुड़े तमाम चमकदार विशेषणों को बेरंगत कर दिया। दो बार ठसक और धमक के साथ दिल्ली की सत्ता पर काबिज हो 2025 के विधानसभा चुनाव में केजरीवाल मुंह के बल गिरे। पार्टी के सभी धुरंधर चुनाव हार गए। खुद केजरीवाल अपना चुनाव हार गए। बीजेपी 27 वर्ष बाद दिल्ली की सत्ता में वापिस आई है। दिल्ली विधानसभा के पुनर्गठन के बाद हुए पहले 1993 के चुनाव में भाजपा की सरकार बनी थी, तब 5 साल के कार्यकाल में भाजपा की अंदरूनी गुटबाजी के कारण सरकार बनने के बाद दो बार मुख्यमंत्री को बदला गया।
इस सरकार का गठन मदनलाल खुराना को मुख्यमंत्री बना कर हुआ। फिर कुछ सालों बाद खुराना को हटा साहिब सिंह वर्मा को मुख्यमंत्री बनाया गया। वर्मा को भी कुछ समय बाद हटना पड़ा और उनकी जगह पदभार संभाला सुषमा स्वराज ने, अब दिल्ली की जनता की बहुत उम्मीद भाजपा सरकार से है। अब जबकि दिल्ली में आप साफ हो गई तो आने वाले समय में आईएनडीआईए की राजनीति पर इसका क्या असर होगा यह विपक्ष के लिए विचारणीय होगा। आप का विस्तार पहले से ही ठहरा हुआ था, विस्तार की संभावना अब और कम हो जाएगी। अब अगले 5 साल केजरीवाल देश की जगह दिल्ली में अपने वजूद को वापिस पाने पर फोकस करने के लिए मजबूर हो सकते हैं।
ऐसा हुआ तो दूसरे राज्यों में पार्टी के विस्तार की संभावनाएं और कम हो जाएंगी। बमुश्किल आठ महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में कांग्रेस और आप दिल्ली में साझीदार थे। खुद नेहरू गांधी परिवार ने आप के उम्मीदवार को वोट किया था परन्तु अब आईएनडीआईए की एकजुटता पर प्रश्न चिन्ह लग गया है। बेशक बिहार में केजरीवाल का कोई वजूद नही है परन्तु दिल्ली के नतीजों के बाद बीजेपी विरोधी पार्टियों के बीच जो आपसी खिंचातान शुरू होगी, उसका असर बिहार चुनाव में महागठबंधन की राजनीति पर पड़े बिना नहीं रहेगा। कांग्रेस पर दिल्ली में आप का खेल बिगाड़ने के आरोप लगेंगे।
यदि यह सब हुआ तो बिहार में महागठबंधन की चुनावी संभावनाओं को नुकसान जरूर पहुंच सकता है। भाजपा के लिए दिल्ली में अब कुछ कर दिखाने का समय है। अब देखना होगा दिल्ली में सत्ता के साथ व्यवस्था भी बदलती है या नही। प्रदूषण मुक्त, ट्रैफिक जाम मुक्त, यमुना को साफ कर एवंम अन्य समस्याओ से छुटकारा दिला भाजपा दिल्ली को अन्य प्रदेशों की जनता के सामने उदाहरण बना पेश कर सकती है।
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