किसान आंदोलन: विरोध की राह से भटकाव तक का सफर
5.jpg)
लोकतंत्र का असली सौंदर्य उसकी आजादी में छिपा है—वह आजादी जो हर नागरिक को अपनी बात कहने, अपनी असहमति जताने का हक देती है। यह अधिकार ही लोकतंत्र की धड़कन है, जो सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए रखता है और शासन को निरंकुश होने से रोकता है। लेकिन जब यही विरोध अपनी सीमाएं लांघकर तर्क और समाधान की राह छोड़ देता है, जब वह हठधर्मिता और टकराव का रंग ले लेता है, तो वह न केवल अपने मकसद से भटक जाता है, बल्कि समाज के लिए बोझ बन जाता है। किसान आंदोलन इसका सबसे ज्वलंत और दुखद उदाहरण है।
यह आंदोलन, जो कभी किसानों की आवाज बनकर उभरा था, धीरे-धीरे संवाद की संभावनाओं को कुचलता हुआ अड़ियलपन और अव्यवस्था का पर्याय बन गया। इसने न सिर्फ कृषि सुधारों के सवाल को उलझाया, बल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया और आर्थिक ढांचे को ठप कर दिया। सवाल यह है—यह आंदोलन कहां से शुरू हुआ, और कहां जाकर भटक गया?
किसान आंदोलन की शुरुआत 2020 में तब हुई, जब केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को लागू किया। सरकार का दावा था कि ये कानून किसानों को बिचौलियों की जकड़न से आजादी देंगे, उन्हें खुले बाजार में अपनी उपज बेचने का मौका देंगे, और खेती को आधुनिक बनाकर उनकी आय बढ़ाएंगे। यह एक बड़ा सपना था—कृषि को 21वीं सदी की जरूरतों के मुताबिक ढालने का सपना।
लेकिन किसानों के मन में शंकाएं पनपने लगीं। क्या ये कानून बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए रास्ता बनाएंगे? क्या न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था, जो दशकों से उनकी आर्थिक रीढ़ रही है, खत्म हो जाएगी? ये डर जायज थे, क्योंकि भारत जैसे देश में खेती सिर्फ आजीविका नहीं, संस्कृति और भावनाओं का हिस्सा है। किसानों ने सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज बुलंद की, और शुरुआत में यह विरोध एक सशक्त लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के रूप में उभरा।
सरकार ने इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश की। कई दौर की वार्ता बुलाई गई, कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव रखा गया, और यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कमेटी बनाकर बीच का रास्ता निकालने की पहल की। लेकिन आंदोलनकारी अपनी मांगों पर अड़े रहे। उनकी जिद थी कि कानून पूरी तरह रद्द हों और एमएसपी को कानूनी गारंटी मिले। यह अड़ियल रुख धीरे-धीरे संवाद की हर गुंजाइश को निगल गया। दिल्ली की सीमाओं पर ट्रैक्टरों की कतारें लगीं, सड़कें महीनों तक जाम रहीं, ट्रकों की लंबी लाइनें ठहर गईं, व्यापार ठप हुआ, और आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। यह आंदोलन अब किसानों की लड़ाई से ज्यादा हठधर्मिता का प्रदर्शन बन चुका था। क्या यह वाकई किसानों के हित में था, या सिर्फ एक ऐसी जिद जो समाधान की बजाय समस्या को और गहरा रही थी?
किसानों की सबसे बड़ी मांग थी कि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाए। पहली नजर में यह मांग भावनात्मक रूप से मजबूत और जायज लगती है। आखिर कौन किसान नहीं चाहेगा कि उसकी फसल का दाम तय हो, उसकी मेहनत की कीमत सुरक्षित रहे? लेकिन इस मांग का दूसरा पहलू उतना ही जटिल और चुनौतीपूर्ण है। अगर एमएसपी को कानून बना दिया जाए, तो सरकार को हर फसल को तय दाम पर खरीदना होगा—चाहे बाजार में उसकी मांग हो या न हो।
इससे सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ेगा, गोदामों में अनाज सड़ेगा, और कृषि बाजार का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाएगा। इतना ही नहीं, इससे किसानों में नवाचार की भावना कम होगी—नई फसलें उगाने, तकनीक अपनाने या बाजार की जरूरतों के हिसाब से बदलने की प्रेरणा खत्म हो जाएगी। सरकार ने इन खतरों को बार-बार सामने रखा, इसे अव्यावहारिक बताया, लेकिन आंदोलनकारियों के कानों पर जूं तक न रेंगी। यह हठ क्या हासिल कर रहा था—किसानों का भला, या सिर्फ एक असंभव सपने की खोज?
इस पूरे प्रकरण में पंजाब सरकार की भूमिका भी कम दिलचस्प नहीं। जब किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे थे, तब सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आप) ने खुलकर उनका साथ दिया। उनके नेता धरना स्थलों पर पहुंचे, जोशीले भाषण दिए, और किसानों को "क्रांतिकारी" करार दिया। यह समर्थन तब तक चला, जब तक आंदोलन से अराजकता नहीं फैली।
लेकिन जैसे ही सड़कों पर हिंसा भड़की, कानून-व्यवस्था पर सवाल उठे, और आम लोग परेशान होने लगे, वही सरकार पलटी। आंदोलनकारियों को हटाने का फैसला लिया गया—वह भी तब, जब नुकसान अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। यह क्या था—राजनीतिक अवसरवाद या मजबूरी? सच तो यह है कि पंजाब सरकार ने पहले आग को हवा दी, और फिर उसे बुझाने का नाटक किया। इस दोहरे रवैये ने आंदोलन को और उलझाया, समाधान को और दूर धकेल दिया।
किसान आंदोलन ने एक कड़वी सच्चाई सामने रखी—जब विरोध टकराव का रूप ले लेता है, तो वह अपनी आत्मा खो देता है। लोकतंत्र में असहमति का हक है, लेकिन वह अराजकता की सीमा को पार नहीं करना चाहिए। इस आंदोलन ने सड़कों को जाम किया, अर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाई, और समाज में दरारें पैदा कीं। लेकिन क्या यह सब जरूरी था? क्या संवाद से यह रास्ता नहीं निकल सकता था? सरकार को किसानों की असली तकलीफें सुननी होंगी—उनका डर, उनकी अनिश्चितता, उनकी उम्मीदें। इसके लिए उसे नीतियों में पारदर्शिता लानी होगी, भरोसा जीतना होगा। दूसरी ओर, किसानों को भी हठ छोड़ना होगा। यह समझना होगा कि हर मांग का कानूनी जवाब संभव नहीं, और हर जिद हल नहीं लाती। दोनों पक्षों को अपने-अपने किलों से बाहर निकलकर संवाद की मेज पर बैठना होगा। टकराव से सिर्फ नुकसान होता है—चाहे वह किसानों का हो, सरकार का हो, या पूरे देश का।
कृषि सुधार भारत जैसे देश के लिए अनिवार्य हैं। खेती को आधुनिक बनाना, किसानों को सशक्त करना, और अर्थव्यवस्था को गति देना समय की मांग है। लेकिन यह तभी मुमकिन होगा, जब सरकार और किसान मिलकर काम करें। सरकार को चाहिए कि वह किसानों के साथ संवेदनशीलता से पेश आए—उनकी आशंकाओं को दूर करे, उनकी बात सुने, और व्यावहारिक समाधान पेश करे। किसानों को भी चाहिए कि वे अड़ियल रुख छोड़ें और बदलते वक्त के साथ कदम मिलाएं। यह आंदोलन तभी सार्थक होगा, जब हठधर्मिता की जगह संवाद ले, और टकराव की जगह सहयोग ले।
किसान आंदोलन हमें एक गहरा सबक देता है—लोकतंत्र में संवाद ही वह सेतु है, जो टूटी उम्मीदों को जोड़ सकता है। जब आंदोलन अपनी राह से भटककर हठ की आग में जलने लगता है, तो वह न सिर्फ अपने मकसद को खो देता है, बल्कि समाज को भी घायल करता है। क्या हम इस सबक को सीखेंगे? क्या सरकार और किसान मिलकर एक नई शुरुआत करेंगे? या फिर यह आग और भड़केगी, और सब कुछ जलाकर राख कर देगी? जवाब हमारे हाथ में है—संवाद चुनें, या हठ की कीमत चुकाएं।
About The Author
Related Posts
Post Comment
आपका शहर
4.jpg)
अंतर्राष्ट्रीय

Online Channel

खबरें
शिक्षा
राज्य

Comment List