किसान आंदोलन: विरोध की राह से भटकाव तक का सफर

किसान आंदोलन: विरोध की राह से भटकाव तक का सफर

लोकतंत्र का असली सौंदर्य उसकी आजादी में छिपा है—वह आजादी जो हर नागरिक को अपनी बात कहनेअपनी असहमति जताने का हक देती है। यह अधिकार ही लोकतंत्र की धड़कन हैजो सत्ता को जनता के प्रति जवाबदेह बनाए रखता है और शासन को निरंकुश होने से रोकता है। लेकिन जब यही विरोध अपनी सीमाएं लांघकर तर्क और समाधान की राह छोड़ देता हैजब वह हठधर्मिता और टकराव का रंग ले लेता हैतो वह न केवल अपने मकसद से भटक जाता हैबल्कि समाज के लिए बोझ बन जाता है। किसान आंदोलन इसका सबसे ज्वलंत और दुखद उदाहरण है।

यह आंदोलनजो कभी किसानों की आवाज बनकर उभरा थाधीरे-धीरे संवाद की संभावनाओं को कुचलता हुआ अड़ियलपन और अव्यवस्था का पर्याय बन गया। इसने न सिर्फ कृषि सुधारों के सवाल को उलझायाबल्कि देश के सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न किया और आर्थिक ढांचे को ठप कर दिया। सवाल यह है—यह आंदोलन कहां से शुरू हुआऔर कहां जाकर भटक गया?

किसान आंदोलन की शुरुआत 2020 में तब हुईजब केंद्र सरकार ने तीन कृषि कानूनों को लागू किया। सरकार का दावा था कि ये कानून किसानों को बिचौलियों की जकड़न से आजादी देंगेउन्हें खुले बाजार में अपनी उपज बेचने का मौका देंगेऔर खेती को आधुनिक बनाकर उनकी आय बढ़ाएंगे। यह एक बड़ा सपना था—कृषि को 21वीं सदी की जरूरतों के मुताबिक ढालने का सपना।

लेकिन किसानों के मन में शंकाएं पनपने लगीं। क्या ये कानून बड़े कॉरपोरेट घरानों के लिए रास्ता बनाएंगेक्या न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपीकी व्यवस्थाजो दशकों से उनकी आर्थिक रीढ़ रही हैखत्म हो जाएगीये डर जायज थेक्योंकि भारत जैसे देश में खेती सिर्फ आजीविका नहींसंस्कृति और भावनाओं का हिस्सा है। किसानों ने सड़कों पर उतरकर अपनी आवाज बुलंद कीऔर शुरुआत में यह विरोध एक सशक्त लोकतांत्रिक अभिव्यक्ति के रूप में उभरा।

सरकार ने इन शंकाओं को दूर करने की कोशिश की। कई दौर की वार्ता बुलाई गईकानूनों में संशोधन का प्रस्ताव रखा गयाऔर यहां तक कि सुप्रीम कोर्ट ने भी कमेटी बनाकर बीच का रास्ता निकालने की पहल की। लेकिन आंदोलनकारी अपनी मांगों पर अड़े रहे। उनकी जिद थी कि कानून पूरी तरह रद्द हों और एमएसपी को कानूनी गारंटी मिले। यह अड़ियल रुख धीरे-धीरे संवाद की हर गुंजाइश को निगल गया। दिल्ली की सीमाओं पर ट्रैक्टरों की कतारें लगींसड़कें महीनों तक जाम रहींट्रकों की लंबी लाइनें ठहर गईंव्यापार ठप हुआऔर आम जनजीवन अस्त-व्यस्त हो गया। यह आंदोलन अब किसानों की लड़ाई से ज्यादा हठधर्मिता का प्रदर्शन बन चुका था। क्या यह वाकई किसानों के हित में थाया सिर्फ एक ऐसी जिद जो समाधान की बजाय समस्या को और गहरा रही थी?

किसानों की सबसे बड़ी मांग थी कि एमएसपी को कानूनी दर्जा दिया जाए। पहली नजर में यह मांग भावनात्मक रूप से मजबूत और जायज लगती है। आखिर कौन किसान नहीं चाहेगा कि उसकी फसल का दाम तय होउसकी मेहनत की कीमत सुरक्षित रहेलेकिन इस मांग का दूसरा पहलू उतना ही जटिल और चुनौतीपूर्ण है। अगर एमएसपी को कानून बना दिया जाएतो सरकार को हर फसल को तय दाम पर खरीदना होगा—चाहे बाजार में उसकी मांग हो या न हो।

इससे सरकारी खजाने पर भारी बोझ पड़ेगागोदामों में अनाज सड़ेगाऔर कृषि बाजार का प्राकृतिक संतुलन बिगड़ जाएगा। इतना ही नहींइससे किसानों में नवाचार की भावना कम होगी—नई फसलें उगानेतकनीक अपनाने या बाजार की जरूरतों के हिसाब से बदलने की प्रेरणा खत्म हो जाएगी। सरकार ने इन खतरों को बार-बार सामने रखाइसे अव्यावहारिक बतायालेकिन आंदोलनकारियों के कानों पर जूं तक न रेंगी। यह हठ क्या हासिल कर रहा था—किसानों का भलाया सिर्फ एक असंभव सपने की खोज?

इस पूरे प्रकरण में पंजाब सरकार की भूमिका भी कम दिलचस्प नहीं। जब किसान दिल्ली की सीमाओं पर डटे थेतब सत्तारूढ़ आम आदमी पार्टी (आपने खुलकर उनका साथ दिया। उनके नेता धरना स्थलों पर पहुंचेजोशीले भाषण दिएऔर किसानों को "क्रांतिकारी" करार दिया। यह समर्थन तब तक चलाजब तक आंदोलन से अराजकता नहीं फैली।

लेकिन जैसे ही सड़कों पर हिंसा भड़कीकानून-व्यवस्था पर सवाल उठेऔर आम लोग परेशान होने लगेवही सरकार पलटी। आंदोलनकारियों को हटाने का फैसला लिया गया—वह भी तबजब नुकसान अपनी चरम सीमा पर पहुंच चुका था। यह क्या था—राजनीतिक अवसरवाद या मजबूरीसच तो यह है कि पंजाब सरकार ने पहले आग को हवा दीऔर फिर उसे बुझाने का नाटक किया। इस दोहरे रवैये ने आंदोलन को और उलझायासमाधान को और दूर धकेल दिया।

किसान आंदोलन ने एक कड़वी सच्चाई सामने रखी—जब विरोध टकराव का रूप ले लेता हैतो वह अपनी आत्मा खो देता है। लोकतंत्र में असहमति का हक हैलेकिन वह अराजकता की सीमा को पार नहीं करना चाहिए। इस आंदोलन ने सड़कों को जाम कियाअर्थव्यवस्था को चोट पहुंचाईऔर समाज में दरारें पैदा कीं। लेकिन क्या यह सब जरूरी थाक्या संवाद से यह रास्ता नहीं निकल सकता थासरकार को किसानों की असली तकलीफें सुननी होंगी—उनका डरउनकी अनिश्चितताउनकी उम्मीदें। इसके लिए उसे नीतियों में पारदर्शिता लानी होगीभरोसा जीतना होगा। दूसरी ओरकिसानों को भी हठ छोड़ना होगा। यह समझना होगा कि हर मांग का कानूनी जवाब संभव नहींऔर हर जिद हल नहीं लाती। दोनों पक्षों को अपने-अपने किलों से बाहर निकलकर संवाद की मेज पर बैठना होगा। टकराव से सिर्फ नुकसान होता है—चाहे वह किसानों का होसरकार का होया पूरे देश का।

कृषि सुधार भारत जैसे देश के लिए अनिवार्य हैं। खेती को आधुनिक बनानाकिसानों को सशक्त करनाऔर अर्थव्यवस्था को गति देना समय की मांग है। लेकिन यह तभी मुमकिन होगाजब सरकार और किसान मिलकर काम करें। सरकार को चाहिए कि वह किसानों के साथ संवेदनशीलता से पेश आए—उनकी आशंकाओं को दूर करेउनकी बात सुनेऔर व्यावहारिक समाधान पेश करे। किसानों को भी चाहिए कि वे अड़ियल रुख छोड़ें और बदलते वक्त के साथ कदम मिलाएं। यह आंदोलन तभी सार्थक होगाजब हठधर्मिता की जगह संवाद लेऔर टकराव की जगह सहयोग ले।

किसान आंदोलन हमें एक गहरा सबक देता है—लोकतंत्र में संवाद ही वह सेतु हैजो टूटी उम्मीदों को जोड़ सकता है। जब आंदोलन अपनी राह से भटककर हठ की आग में जलने लगता हैतो वह न सिर्फ अपने मकसद को खो देता हैबल्कि समाज को भी घायल करता है। क्या हम इस सबक को सीखेंगेक्या सरकार और किसान मिलकर एक नई शुरुआत करेंगेया फिर यह आग और भड़केगीऔर सब कुछ जलाकर राख कर देगीजवाब हमारे हाथ में है—संवाद चुनेंया हठ की कीमत चुकाएं।

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