मिश्रा जी को मानसिक चिकत्सा की जरूरत

मिश्रा जी को मानसिक चिकत्सा की जरूरत

मुमकिन है कि कोई नासमझ आज के इस आलेख को पढ़ने के बाद मेरे ऊपर अदालत की मानहानि का मामला बनाने की सोचे, लेकिन मेरा इरादा माननीय अदालतों का मान बनाये रखने का है और इसीलिए मै पूरी जिम्मेदारी से लिख रहा हूँ  कि इलाहबाद उच्च न्यायालय के माननीय न्यायाधीश राम मनोहर मिश्रा को मानसिक चिकित्सा  उपलब्ध कराई जाये, वो भी सरकारी खर्चे पर। मिश्रा जी ने हाल ही में बलात्कार के एक मामले में कहा है कि  -'कहा कि 'स्तन छूना और पायजामा का नाड़ा तोड़ना रेप नहीं है।

माननीय  मिश्रा जी अनाड़ी  नहीं हैं। उनके पास न्यायिक सेवा का लंबा अनुभव है।  6 नवंबर 1964 को जन्में  जस्टिस राम मनोहर मिश्र  ने 1985 में विधि स्नातक  की पढ़ाई पूरी की. फिर 1987 में उन्होंने  विधि स्नातकोत्तर  किया। मिश्रा जी  वर्ष 1990 में मुंसिफ के रूप में उत्तर प्रदेश न्यायिक सेवा में शामिल हुए। डेढ़ दशक बाद  2005 में उच्चतर न्यायिक सेवा में इनका प्रमोशन हुआ।  चार साल बाद 2019 में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में नियुक्त हुए।  यहां पर प्रमोशन से पहले इन्होंने बागपत, अलीगढ़ जिलों में सर्विस की. साथ ही इन्होंने जेटीआरआई के निदेशक और लखनऊ में जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में भी कार्य किया।

मुझे पूरा यकीन है कि मिश्रा जी ने कानूनी दायरे  में ही अहम टिप्पणी की होगी। उन्होंने  कहा कि अगर कोई व्यक्ति किसी युवती का जबरन स्तन पकड़ता है या पायजामे का नाड़ा तोड़ता है, तो यह रेप की श्रेणी में नहीं आएगा। यानी ऐसे मामले में धारा 376 के तहत आरोप तय नहीं किया जा सकता। हालांकि, यह गंभीर यौन अपराध माना जाएगा और धारा 354-बी के तहत आरोपी को सजा दी जाएगी। मिश्रा जी अपनी जगह पूरी तरह सही भी हो सकते हैं, लेकिन जिस पीड़िता के साथ जो अपराध हुआ वो और इस देश की तमाम जनता मिश्रा जी की टिप्पणी से न तो मुतमईन हैं और न इसे स्वीकार कर सकते हैं।

मिश्रा जी ने सिर्फ टिप्पणी ही नहीं की बल्कि अपनी विद्व्ता प्रमाणित करते हुए ये भी कहा कि रेप की कोशिश और अपराध की तैयारी के बीच का अंतर समझना जरूरी है। किसी घटना को किस धारा के तहत रखा जाएगा, यह घटना की प्रकृति और उसके इरादे पर निर्भर करता है। कासगंज के एक मामले में यह टिप्पणी करते हुए हाईकोर्ट ने स्पष्ट किया कि कानून को सही तरीके से समझना और लागू करना आवश्यक है।

दरअसल मिश्रा जी की महिलाओं के प्रति मानसिकता को समझना आसान नहीं है क्योंकि जहां वे एक तरफ एक विवादास्पद फैसला सुनाते  हैं वहीं पूर्व में 2023 में, रेप के एक मामले की सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि पीड़िता को सह-अपराधी मानना पूरी तरह गलत है। ऐसी बातें महिला के सम्मान के खिलाफ हैं और समाज में गलत संदेश देती हैं। 2024 में, एक महिला के गुजारे भत्ते से जुड़े मामले में सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा कि मिडिल क्लास परिवार की महिला के लिए 2500 रुपये में गुजारा करना बहुत मुश्किल है। इसलिए, भत्ते की राशि को बढ़ाकर 5000 रुपये प्रति माह किया जाना चाहिए।

अब ये तो मिश्रा जी ही बता सकते हैं कि  कोई अपराधी या आरोपी किसी महिला के स्तन को किस  इरादे से स्पर्श करता है या उसके पायजामे का नाडा तोड़ता है ? लेकिन आम आदमी को तो यही समझता है कि  आरोपी की नीयत में खोट  के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता। मुमकिन है कि पक्षकार इस फैसले के खिलाफ सर्वोच्च न्यायालय की शरण ले, मुमकिन है कि  समर्थ न होने पर अपमान का घूँट पीकर घर बैठ जाये ,लेकिन ये बहस तो मिश्रा जी ने शुरू कर ही दी है कि  उनका फैसला भारतीय समाज के मूल्यों के विपरीत है भले ही वो क़ानून के हिसाब से सौ फीसदी सही हो।

पिछले कुछ वर्षों में मिश्रा जी की ही नहीं बल्कि पूरी न्यायपालिका की दृष्टि में अन्तर आया है। हमारी न्यायपालिका की आँखों से पट्टी क्या हटी अब वो धार्मिक हो गयी है ।  खुद मिश्रा जी ने मार्च 2024 में, जस्टिस मिश्र की अध्यक्षता वाली हाईकोर्ट की बेंच ने एक निचली अदालत के उस आदेश को रद्द कर दिया, जिसमें मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की तुलना यूनानी दार्शनिक प्लेटो की अवधारणा से की गई थी। निचली अदालत ने कहा था कि जब कोई धार्मिक व्यक्ति सत्ता में होता है, तो शासन के अच्छे परिणाम सामने आते हैं। जस्टिस मिश्र ने इस टिप्पणी को हटाने का आदेश दिया। यानि मिश्रा जी मिलाओं के प्रति ही नहीं बल्कि योगी जी के प्रति भी संवेदनशील नजर आते हैं।

मिश्रा  जी की टिप्पणी के बारे में अकेला मै ही नुक्ताचीनी करता तो आप मुझे सिरफिरा कह सकते थे ,लेकिन लखनऊ विश्वविद्यालय की पूर्व कुलपति और सामाजिक कार्यकर्ता रूपरेखा वर्मा का कहना है, ''कम से कम यह कहा जा सकता है कि यह निर्णय निराशाजनक, अपमानजनक और शर्मनाक है. महिला की सुरक्षा और गरिमा के मामले में तैयारी और प्रयास के बीच का सूक्ष्म अंतर बहुत ही अकादमिक है.''पेशे से वकील
 सायमा ख़ान कहती हैं, ''भारतीय क़ानून में किसी भी आपराधिक प्रयास को पूर्ण अपराध की श्रेणी में ही देखा जाता है, बशर्ते कि इरादा स्पष्ट हो और अपराध की दिशा में ठोस कदम उठाया गया हो. पायजामी की डोरी तोड़ना या शरीर को जबरन छूना साफ तौर पर बलात्कार के प्रयास की श्रेणी में आ सकता है, क्योंकि इसका मकसद पीड़िता की शारीरिक स्वायत्तता का उल्लंघन करना है.'।

आपको बता दें की पीड़ित लड़की की मां ने आरोप लगाया था कि 10 नंवबर 2021 को शाम पांच बजे जब वो अपनी 14 वर्षीय बेटी के साथ देवरानी के गांव से लौट रही थी तो अभियुक्त पवन, आकाश और अशोक मोटरसाइकिल पर उन्हें रास्ते में मिले। मां का कहना था कि पवन ने उनकी बेटी को घर छोड़ने का भरोसा दिलाया और इसी विश्वास के तहत उन्होंने अपनी बेटी को जाने दिया। लेकिन रास्ते में मोटरसाइकिल रोककर इन तीनों लोगों ने लड़की से बदतमीज़ी की और उसके प्राइवेट पार्ट्स को छुआ. उसे पुल के नीचे घसीटा और उसके पायजामी का नाड़ा तोड़ दिया।

लेकिन तभी वहां से ट्रैक्टर से गुजर रहे दो व्यक्तियों सतीश और भूरे ने लड़की का रोना सुना. अभियुक्तों ने उन्हें तमंचा दिखाया और फिर वहां से भाग गए। जब नाबालिग की मां ने पवन के पिता अशोक से शिकायत की तो उन्हें जान की धमकी दी गई जिसके बाद वे थाने गई लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई।

ये मामला कासगंज की विशेष कोर्ट में पहुंचा जहां पवन और आकाश पर आईपीसी की धारा 376 (बलात्कार), पॉक्सो एक्ट की धारा 18 (अपराध करने का प्रयास) और अशोक के ख़िलाफ़ धारा 504 और 506 लगाई गईं। इस मामले में सतीश और भूरे गवाह बने, लेकिन इस मामले को अभियुक्तों की तरफ से इलाहाबाद हाई कोर्ट में चुनौती दी गयी। इस मामले में जस्टिस मिश्रा लकीर के फकीर बन गए। हालांकि ये मामला भारतीय न्याय संहिता (बीएनएस) के अमल में आने से पहले का है. इसलिए फ़ैसला आईपीसी की धारा 376 के तहत दिया गया है और इसके प्रावधान अलग हैं। धारा 375 बलात्कार को परिभाषित करती है जिसके मुताबिक जब तक मुंह, या प्राइवेट पार्ट्स मे लिंग या किसी वस्तु का प्रवेश ना हो, वो बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता है.जस्टिस मिश्रा ने इस केस में साफ किया कि सेक्शन 376, 511 आईपीसी या 376 आईपीसी और पॉक्सो एक्ट के सेक्शन 18 का मामला नहीं बनता है।

न्यायमूर्ति मिश्रा को अभी बहुत दिनों तक काम करना है ,इसलिए जरूरी है कि  एक बार उनसे ऊपर की अदालत उनके और उनके फैसलों के बारे में समीक्षा जरूर करे ,अन्यथा इस तरह के लज्जास्पद फैसलों की वजह से न्यायपालिका के प्रति आम जनता का विश्वास डिग जाएगा यदि ऐसा होता है तो ये हमारी न्यायव्यवस्था के लिए एक गंभीर चुनौती बन सकती है। क्या आप मिश्रा जी की टिप्पणी से सहमत हैं ?

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