आनंद नहीं, आत्मघात सिखा रहे ऑनलाइन गेम्स
खिलौने छूटे, जख्म मिले: मासूमियत पर तकनीक की मार

जब नन्हे हाथों में किताबें और रंग-बिरंगी पेंसिलें होनी चाहिए थीं, तब वहां ब्लेड से बने जख्म थे। जब मासूम आंखों में सपने चमकने चाहिए थे, तब उनमें डर और बेचैनी थी। राजस्थान के एक स्कूल में जब एक साथ 40 बच्चों के हाथों पर गहरे कट के निशान दिखाई दिए, तो हर किसी का दिल कांप उठा। यह कोई साधारण हादसा नहीं था, यह था आधुनिक तकनीक के अंधेरे पक्ष का खौफनाक परिणाम। आज का युग तकनीक और इंटरनेट का है, जहां बच्चों का अधिकतर समय मोबाइल, वीडियो गेम्स और सोशल मीडिया में गुजर रहा है। दुर्भाग्यवश, इन सुविधाओं के बीच कुछ ऐसी काली परछाइयाँ भी हैं जो बच्चों की मासूमियत और मानसिक स्वास्थ्य को निगल रही हैं। ऐसा ही एक उदाहरण सामने आया राजस्थान के एक सरकारी स्कूल से, जहां कक्षा 5वीं से 8वीं तक के 40 से अधिक बच्चे एक खतरनाक वीडियो गेम के शिकार हो गए।
घटना के अनुसार, बच्चों के बीच एक ऑनलाइन गेम का जुनून इस हद तक बढ़ गया कि वे एक-दूसरे को खतरनाक टास्क देने लगे। जो जितना गहरा घाव बनाता, उसे इनाम और शाबाशी से नवाजा जाता। बच्चों ने ब्लेड, कटर और नुकीली वस्तुओं से अपने हाथों को छलनी कर डाला। जब शिक्षकों और अभिभावकों की नजर बच्चों के हाथों पर पड़े गहरे निशानों पर गई, तब जाकर इस भयावह सच का पर्दाफाश हुआ। हर अभिभावक सन्न रह गया, यह देखकर कि एक मासूम मोबाइल गेम उनके बच्चों को आत्म-विनाश के रास्ते पर धकेल रहा था।
इस घटना ने एक बार फिर उस कुख्यात और खौफनाक गेम "ब्लू व्हेल" की भयावह यादें ताजा कर दीं, जिसने 2017 में कई मासूम बच्चों की जिंदगियां निगल ली थीं। उस गेम में बच्चों को 50 जानलेवा टास्क थमाए जाते थे, जिनका अंतिम पड़ाव आत्महत्या के काले दरवाजे पर जाकर खुलता था। विशेषज्ञ मानते हैं कि यह गेम बच्चों के कोमल मन, उनकी भावनात्मक कमजोरियों और अकेलेपन की नस को पकड़कर उन्हें अपने जाल में फंसाता था। बच्चे धीरे-धीरे इस दलदल में उतरते चले जाते और मानसिक रूप से इस कदर टूट जाते कि बाहर निकलने का रास्ता ही बंद हो जाता।
यह घटना महज एक गेम का परिणाम नहीं, बल्कि बच्चों की भीतर उमड़ती मानसिक उथल-पुथल का आईना है। आज के बच्चे मोबाइल की चकाचौंध में खोए तो हैं, पर परिवार की गर्माहट, माता-पिता के प्यार और समाज के जुड़ाव से कोसों दूर होते जा रहे हैं। कई बार अभिभावक अपने बच्चों की छोटी-छोटी बातों को नजरअंदाज कर देते हैं, उनकी भावनाओं को अनदेखा करते हैं, और बच्चे चुपचाप एक अनजाने दर्द की गहराई में डूबते चले जाते हैं। ऐसे में ये खतरनाक खेल उनके सामने एक छलावा बनकर आते हैं—एक झूठा सहारा और रोमांच की चुनौती देकर उन्हें भटकाव के अंधेरे में धकेल देते हैं।
इस समस्या का हल महज गेम्स पर पाबंदी लगाना नहीं है; असल जरूरत है बच्चों के दिल और दिमाग तक पहुँचने की। माता-पिता और शिक्षकों को चाहिए कि वे बच्चों से दिल खोलकर बात करें, उनकी कही-अनकही को सुनें और उसकी गहराई को समझें। बच्चों को यह एहसास दिलाना होगा कि वे कभी अकेले नहीं हैं—उनके हर डर, हर उलझन और हर मुश्किल में उनके माता-पिता और शिक्षक उनके साथ कदम-से-कदम खड़े हैं।
बच्चों को तकनीक का सही और संतुलित इस्तेमाल सिखाना, समय पर उनकी सीमाएँ तय करना और उन्हें एक खुला, भरोसेमंद माहौल देना ही इस खतरे से बचाव का असली रास्ता है। स्कूलों को भी आगे आना होगा—मानसिक स्वास्थ्य, तनाव से निपटने के तरीके और आत्म-विश्वास को मजबूत करने के लिए खास कार्यक्रम और वर्कशॉप्स आयोजित करने चाहिए, ताकि बच्चे न केवल तकनीक के गुलाम बनें, बल्कि अपनी जिंदगी के मालिक बनकर उभरें।
बच्चों का मन कोमल मिट्टी की तरह होता है—जैसा आकार दोगे, वैसा ही ढल जाता है। आज वक्त की मांग है कि हम अपने बच्चों के साथ दिल से वक्त बिताएं, उनकी दुनिया को करीब से जानें और उनसे बेझिझक बातें करें। अगर हमने यह जिम्मेदारी नहीं संभाली, तो आने वाला कल न जाने कितने मासूमों को ऐसे ही खतरनाक खेलों की भेंट चढ़ते देखेगा। अब वक्त आ गया है कि हम सब एकजुट होकर बच्चों को इस स्याह अंधेरे से बाहर निकालें और उनके जीवन को फिर से उम्मीदों के रंगों से सजाएँ।
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