कर्मचारियों को राष्ट्रीय पेंशन, एकीकृत पेंशन के साथ पुरानी पेंशन का भी विकल्प दे सरकार

जिस देश की संसद में शोर की तुलना कौओं की कांव कांव से होती हो। जहां चप्पलों, जूतों, कुर्सियों को हथियारों के रूप में प्रयोग किया जाता हो। जहां असंसदीय शब्दों का प्रयोग कर उन्हें कार्रवाई से निकालने की आवश्यकता पड़ती हो, उस देश में बिना किसी शोर-शराबे, बिना किसी बहस, बिना किसी विरोध के सांसदों के वेतन, भत्तों और पेंशन में चौबीस प्रतिशत की वृद्धि का प्रस्ताव पास हो गया। सत्ता पक्ष चुप, विपक्ष भी चुप। कोई बहस नहीं, कोई चर्चा नहीं। ऐसा लगा मानो यह कोई राष्ट्रीय एकता का क्षण हो, जहाँ सभी दलों ने एक स्वर में कहा, ऐसे बिलों पर हम एक थे, एक हैं और एक रहेंगे।
कमाल की बात यह कि इस वृद्धि से न तो देश की अर्थव्यवस्था पर कोई बोझ पड़ा, न ही विकास की गति में कोई बाधा आई। ऐसा लगता है जैसे कि सांसदों के वेतन और पेंशन का पैसा संयुक्त राष्ट्र संघ से आता हो, या फिर कोई अदृश्य दैवीय शक्ति इसकी व्यवस्था करती हो। क्योंकि अगर यही वेतन वृद्धि या पेंशन की बात कर्मचारियों के लिए की जाए, तो तुरंत अर्थव्यवस्था के डूबने की बात शुरू हो जाती है। अखबारों में मोटी मोटी सुर्खियों में लिखा जाता है कि कर्मचारियों का महंगाई भत्ता बढ़ाने से देश पर कितना आर्थिक बोझ बढ़ जाएगा।
दूसरी ओर, कर्मचारियों के लिए एक नई अधिसूचना जारी की गई है। इस अधिसूचना के अनुसार एकीकृत पेंशन योजना (UPS) को थोपने की तैयारी है। कर्मचारियों के सामने दो विकल्प रखे गए हैं: या तो UPS स्वीकार करो, या फिर राष्ट्रीय पेंशन योजना (NPS) में बने रहो। यह ऐसा ही है जैसे किसी को कहा जाए कि तुम या तो तुम सौ प्याज खा लो या फिर सौ कोड़े खाओ! लेकिन प्रश्न यह है कि पेंशन के तीन विकल्प होते हुए कर्मचारियों को चुनने के लिए दो ही क्यों दिए जा रहे हैं? स्वतंत्रता के पश्चात से लागू पुरानी पेंशन योजना (OPS) को विकल्पों की इस सूची में शामिल क्यों नहीं किया गया। सांसद जो वास्तव में जनसेवक होते हुए वेतन या पेंशन के हकदार भी नहीं बनते, उनके वेतन भत्तों में चौबीस प्रतिशत की वृद्धि। कर्मचारी जो देश की अर्थव्यवस्था की रीढ़ माने जाते हैं, उन्हें ठेंगा।
संसद में बैठने वाले हमारे माननीय जनप्रतिनिधियों के लिए पैसा कोई समस्या नहीं है। चौबीस प्रतिशत की वृद्धि कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। एक आम कर्मचारी के लिए इतनी वृद्धि का सपना देखना भी एक गहन अपराध माना जा सकता है। लेकिन सांसदों के लिए यह बस एक औपचारिकता है। न कोई बहस, न कोई प्रश्न। यहाँ तक कि विपक्ष, जो हर छोटी-बड़ी बात पर हंगामा करने के लिए तैयार रहता है, इस मुद्दे पर खामोश रहा। जैसे कि किसी ने बाहर से आकर कह दिया हो, खामोश……. । शायद इसलिए कि यहाँ निजी हित की बात थी, और निजी हित के आगे राष्ट्रीय हित गौण हो जाता है।
सांसदों को मिलने वाले भत्तों की सूची देखें तो लगता है कि ये लोग किसी दूसरे ग्रह से आए हैं, जहाँ महँगाई, गरीबी और आर्थिक संकट जैसी समस्याएँ नहीं होतीं। मुफ्त आवास, मुफ्त यात्रा, चिकित्सा सुविधाएँ, और अब पेंशन में भारी वृद्धि। यह सब तब हो रहा है जब देश की अर्थव्यवस्था को लेकर हर दूसरी खबर में चिंता जताई जा रही है। लेकिन सांसदों के लिए यह सब जायज़ है। आखिर वे देश के "निर्माता" हैं, और निर्माताओं को तो विशेष सुविधाएँ मिलनी ही चाहिए।
अब बात करते हैं उस मेहनतकश वर्ग की, जो वास्तव में देश को चलाता है—सरकारी कर्मचारी। इनके लिए न तो वेतन वृद्धि इतनी आसानी से होती है, न ही पेंशन की कोई गारंटी। नई अधिसूचना के तहत कर्मचारियों को UPS और NPS के बीच चुनने को कहा जा रहा है। UPS को "एकीकृत" कहकर इसे कोई क्रांतिकारी कदम बताया जा रहा है, लेकिन हकीकत में यह एक और बोझ है। NPS तो पहले से ही कर्मचारियों के गले की फाँस बना हुआ है, जहाँ उनकी पेंशन बाज़ार के उतार-चढ़ाव पर निर्भर करती है। क्या यह उचित है कि जिस कर्मचारी ने अपना यौवन देश की सेवा की में समर्पित कर दिया वह बुढ़ापे में मजदूरी करता फिरे।
पुरानी पेंशन योजना एक ऐसा विकल्प था, जो कर्मचारियों को निश्चितता और सम्मान देता था। इसमें सरकार उनकी पेंशन की गारंटी लेती थी, जो उनकी मेहनत का उचित प्रतिफल था। लेकिन पुरानी पैशन योजना को खत्म कर राष्ट्रीय पेंशन योजना को लाया गया, और अब एकीकृत पेंशन योजना के नाम पर एक और प्रयोग हो रहा है। सवाल यह है कि जब सांसदों को पेंशन में चौबीस प्रतिशत की वृद्धि दी जा सकती है, तो कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने में क्या दिक्कत है? क्या कर्मचारी इस देश के नागरिक नहीं हैं? क्या उनके परिश्रम की कोई कीमत नहीं है?
यहाँ सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि अर्थव्यवस्था पर बोझ का ढोंग क्यों? जब सांसदों के वेतन और पेंशन बढ़ाने की बात आती है, तो कोई नहीं पूछता कि पैसा कहाँ से आएगा। लेकिन जैसे ही कर्मचारियों की पेंशन की बात होती है, तुरंत कहा जाता है कि इससे देश डूब जाएगा, इतना पैसा आएगा कहां से? यह दोहरा मापदंड क्यों? क्या सांसदों की सुविधाएँ अर्थव्यवस्था को प्रभावित नहीं करतीं? या फिर यह मान लिया गया है कि सांसदों का योगदान इतना अनमोल है कि उसकी कोई कीमत नहीं आँकी जा सकती?
सच्चाई यह है कि कर्मचारी देश की रीढ़ हैं। वे शिक्षक हैं, जो बच्चों को पढ़ाते हैं; वे स्वास्थ्यकर्मी हैं, जो जान बचाते हैं; वे प्रशासनिक अधिकारी हैं, जो व्यवस्था चलाते हैं। लेकिन इनके लिए सरकार के पास न तो पैसा है, न ही संवेदना। दूसरी ओर, सांसदों के लिए खजाना हमेशा खुला रहता है। यह विडंबना नहीं तो और क्या है?
कर्मचारियों के सामने जो दो विकल्प रखे गए हैं—एकीकृत पेंशन योजना और राष्ट्रीय पेंशन योजना—वे वास्तव में कोई विकल्प ही नहीं हैं। दोनों ही योजनाएँ अनिश्चितता और असुरक्षा से भरी हैं। ऐसे में तीसरा विकल्प देना जरूरी है, और वह है पुरानी पेंशन योजना। पुरानी पेंशन योजना को बहाल करना न केवल कर्मचारियों के हित में है, बल्कि यह सामाजिक न्याय की मांग भी है। जब सांसद अपनी पेंशन बढ़ा सकते हैं, तो कर्मचारियों को उनकी पुरानी पेंशन से वंचित क्यों रखा जाए?
पुरानी पेंशन योजना को बहाल करने से कर्मचारियों को सम्मानजनक जीवन मिलेगा। यह उनकी मेहनत का उचित प्रतिफल होगा। साथ ही, इससे अर्थव्यवस्था में भी सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा, क्योंकि पेंशन पाने वाले कर्मचारी अपने पैसे को बाज़ार में खर्च करेंगे, जिससे माँग बढ़ेगी और विकास को गति मिलेगी। लेकिन शायद सरकार को यह बात समझ नहीं आती, या समझना नहीं चाहती।
सांसदों की चौबीस प्रतिशत वेतन-पेंशन वृद्धि और कर्मचारियों पर एकीकृत पेंशन योजना थोपने की नीति देश में बढ़ती असमानता का प्रतीक है। एक ओर वे हैं, जिनके लिए पैसा पानी की तरह बहाया जाता है; दूसरी ओर वे, जिनके लिए हर सुविधा बोझ बन जाती है। यह समय है कि सरकार अपने दोहरे मापदंड को छोड़े और कर्मचारियों को उनका हक दे। पुरानी पेंशन योजना को तीसरे विकल्प के रूप में शामिल करना न केवल जरूरी है, बल्कि यह लोकतंत्र की सच्ची भावना को भी दर्शाएगा। आखिर, देश वही चलता है, जो मेहनत करता है—और मेहनत करने वालों का सम्मान होना चाहिए।
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