कृष्ण और नीरो की बंशी में भेद

कृष्ण और नीरो की बंशी में भेद

आज और कल पूरा देश योगिराज भगवान कृष्ण का 5251 वां जन्मदिन मना रहा है।  भगवान कृष्ण कहें या लीलाधर कहें, या गोपाल इससे कोई  फर्क नहीं पड़ता। कृष्ण को उनके भक्त किसी भी नाम से पुकार सकते हैं । उनके एक-दो  नहीं पूरे  108 नाम हैं ,लेकिन मुझे उनका मुरलीधर नाम सबसे प्रिय लगता है। बिना मुरली के कृष्ण को स्वीकार करना बहुत कठिन है। मुरली और कृष्ण एक-दूसरे  के पर्याय हैं। उनकी मुरली कहें या बंशी कहें या बांसुरी कहें सबसे अलग ढंग  से बजती है।
आपको यकीन हो या न हो ,लेकिन मुरली या बंशी या बांसुरी हमारे मोहन से भी पुरानी है। असली सनातन तो  बांसुरी ही है। कृष्ण से भी पुरानी और नीरो से भी पुरानी। विज्ञान का ज्ञान कहता है कि बांसुरी 43  हजार साल पुरानी है। दावा किया जाता है की 2008 में जर्मनी के उल्म के पास होहल फेल्स गुहा में एक और कम से कम 35,000 साल पुरानी बांसुरी पाई गई।

पाई गयी होगी ,हमें बांसुरी की उम्र से क्या लेना-देना ।  हम तो अपने मोहन की बांसुरी के दीवाने  हैं और बांसुरी मोहन की दीवानी है। मोहन की बांसुरी नीरो की बांसुरी से अलग है। बांसुरी प्रेमी होने के बावजूद नीरो को दुनिया में वो सम्मान हासिल नहीं हुआ ,जो हमारे मोहन को हुआ। नीरो उस समय बांसुरी बजाता रहा जब पूरा रोम धूं-धूंकर जल रहा था। अर्थात नीरो एक लापरवाह शासक था ,लेकिन कृष्ण ने हर समय बांसुरी बजाकर अपने रोम [बृज ] की रक्षा की। न केवल अपनी रियाया को बचाया बल्कि अपने गोवंश   को भी बचाया। कृष्ण एक संरक्षक भी हैं,मित्र भी हैं ,कूटनीतिज्ञ भी है ,योद्धा भी हैं। वे सब कुछ नहीं हैं सिवाय नीरो के। कृष्ण होना अलग बात है और नीरो होना अलग। कृष्ण बार-बार अवतरित नहीं होते लेकिन नीरो हर देश में, हर कालखंड में पैदा होते रहते है।  आजकल भी जगह-जगह रोम जल रहा है और जगह-जगह नीरो बंशी बजा रहे हैं। मणिपुर से लेकर यूक्रेन तक ,इजराइल से लेकर फिलिस्तीन तक,सब कुछ जलता नजर आ रहा है।

कृष्ण को समझना और नीरो को समझना अलग-अलग विषय हैं। कृष्ण अनंत हैं ,अनादि हैं ,लेकिन नीरो न अनंत  है और न अनादि। नीरो का कालखंड सीमित है ।  उसकी शक्तियां सीमित हैं लेकिन नीरो और उसकी बांसुरी एक गाली बन चुकी है। जबकि कृष्ण और उनकी बांसुरी प्रेम का ,अनुराग  का प्रतीक बन चुकी हैं। कृष्ण की बांसुरी पुलकित करती है और नीरो की बांसुरी वितृष्णा पैदा करती है। दरअसल  नीरो और कृष्ण की कोई तुलना है ही नहीं, किन्तु दोनों की बांसुरी ने मुझे कृष्ण के साथ नीरो का जिक्र करने को विवश कर दिया।

हमंने छात्र जीवन में पढ़ा था कि  -"जब रोम जल रहा था, तो नीरो सुख और चैन की बाँसुरी बजा रहा था." यह कहावत रोमन सम्राट नीरो के बारे में मशहूर है।  नीरो पर रोम में आग लगवाने का आरोप भी लगाया जाता है और कहा जाता है कि उसने जानबूझकर ऐसा किया। नीरो को इतिहास के एक ऐसे क्रूर शासक के रूप में जाना जाता है, जिसने अपनी मां, सौतेले भाइयों और पत्नियों की हत्या कराई थी और अपने दरबार में मौजूद किन्नरों से शादियां की थी। यानि नीरो कृष्ण के मामा कंश से मिलता -जुलता है ,कृष्ण से नहीं।

कलिकाल में भी कृष्ण और उनके प्रेमियों की कमी नहीं है ,लेकिन वे सबके सब कृष्ण को ढंग से जानते नहीं  है।  कोई उन्हें अहीर कहता है ,तो कोई यादव। लेकिन वे छछिया  भर   छाछ पर नाचने वाले कृष्ण हैं।  उन्हें नाचने वाली अहीर की छोहरियाँ ही नहीं बल्कि मेवाड़ की राजपूत मीरा भी है और गरीब सुदामा और सूरदास भी। कृष्ण भक्तों के भक्त है।  उन्होंने अंधभक्त नहीं बनाये। उन्होंने अपने भक्तों की आँखें खोलीं। आजकल भक्तों के बज्जाय अंधभक्त बनाने का चलन है। हमारे मध्यप्रदेश में चूंकि मुख्यमंत्री जी खुद अहीर हैं इसलिए उन्होंने मुख्यमंत्री बनने केबाद अपने 9 माह के कार्यकाल में सबसे बड़ा यदि कोई काम किया है तो ये कि  वे प्रदेश के हर जिले में एक बरसाना बसायेंगे। उनके पहले बाबूलाल गौर साहब थे उन्होंने भी हर जिले में गोकुल ग्राम बसाने की घोषणा की थी ,लेकिन न वे ऐसा कर पाए  और न मोहन जी के बूते की बात है ,क्योंकि बरसाना बसाया नहीं जाता।

बरसाना तो देश और दुनिया में एक ही है। यदि उन्हें कृष्णभक्ति में कुछ बसाना और बनाना ही है तो वे प्रदेश  के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों को बसाएं और बचाएं जहां कि  डाक्टरों के अभाव में एक साल में 17  हजार प्रसूताएं अपनी जान से हाथ धो बैठीं।
मै अपनी कहूँ तो मुझे जितने  प्रिय मर्यादा पुरषोत्तम राम  हैं उतने ही लीलाधर कृष्ण भी। बल्कि कृष्ण ज्यादा प्रिय हैं। हालांकि मै आजतक उनके ब्रज नहीं गया।  मैंने मथुरा कोभी सरसरी तौर पर ही देखा और जाना है ,लेकिन मै कृष्ण को हर समय महसूस करता हूँ।  वे मर्यादाओं में बंधे राम नहीं है।  वे आम आदमी के बीच के कृष्ण है। वे चरवाहे भी हैं और नर्तक भी। वे रास भी रचाते हैं और कुशासन के प्रतीक बन चुके अपने मामा कंश का वध भी करते हैं। राम ने अपने किसी सगे -संबंधी का वध नहीं किया। वे रावण का वध करने के लिए अवतरित हुए थे। कृष्ण और राम में मूल अंतर् ये है कि  कृष्ण अपनी पत्नी की अग्निपरीक्षा नहीं लेते जबकि राम लेते हैं। बहरहाल बात कृष्ण की और नीरो की हो रही है। हमारे देश की राजनीति में राम कालातीत हो चुके है।  उनके नाम का आंदोलन समाप्त हो चुका है।  राम का मंदिर बन चुका है।

 मंदिर में राम के बाल स्वरूप की प्राण -प्रतिष्ठा हो चुकीहै। भविष्य के लिए अब सियासत कृष्ण के नाम पर होना है ।  उनकी जन्मभूमि की मुक्ति के लिए आंदोलन चलाये जाना हैं।  मथुरा में नया बृजलोक बनाया जाना है। लोगों से जबरन जय श्रीकृष्ण बुलवाना है। जबकि कृष्ण पहले से जन-जन के मन में है।  कण-कण में हैं। रोम-रोम में हैं। उनका रोम जलने वाला रोम नहीं है ।  उनकी बांसुरी जलते हुए रोम को नहीं देख सकती। कोई माने या न माने आजकल हमारे मुल्क की दशा भी पुराने ज़माने के रोम जैसी हो रही ह। हमारे रोम के उनके हिस्सों में आग लगी हुई है ,लेकिन हमारा नीरो अपनी बांसुरी बजा रहा है। उसकी बांसुरी चुनावी शंखनाद में भी बजती है और जब चुनाव न भी हों तो भी बजती है।

भारत को आज भी कृष्ण की आवश्यकता है ,नीरो की नहीं।  कृष्ण का बताया रास्ता ही हमें और हमारे समाज को सही सम्मान दे सकता है। कृष्ण के जमाने में हिन्दू-मुसलमान का विवाद नहीं था। उस समय भी यदि मुसलमान रहे होते तो वे भी रसखान की तरह कृष्ण के दीवाने होते।। क्योंकि कृष्ण तो दीवानगी का ही दूसरा नाम है। वे सिर्फ और सिर्फ प्रेम करते हैं , घृणा नहीं। कृष्ण के शब्दकोश में घृणा नाम का कोई शब्द है ही नहीं। ये गैर कृष्ण्वदियों के शब्दकोश का शब्द है। घृणा तो राम के शब्दकोश में भी नहीं है किन्तु रामभक्तों के मन घृणा से भरे हैं। वे देश की 20  फीसदी  आबादी को अपना मानते ही नहीं हैं। बहरहाल -' मेरो तो गिरधर गोपाल ,दूसरो न को। जा  के सिर मोर मुकुट ,मेरो पति सोई ' है। मै किसी और को मानता ही नहीं।  कोई दल हो,कोई नेता हो ,यदि वो सत्ता प्रतिष्ठान पर बैठकर नीरो बनेगा तो हम उसकी बांसुरी बजने नहीं देंगे। ये हमारा वादा है।  जय श्रीकृष्ण

@ राकेश अचल 

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