प्रदूषण के खतरे। आगामी पीढ़ी की दुर्दशा से बेखबर ।
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महात्मा गांधी ने खुद कहा है कि पृथ्वी पर सभी की आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए संसाधन है, किंतु मानव की लालच को पूरा करने का कोई साधन नहीं है। आजादी हमें मिली है यानी कि मानव को परंतु प्रकृति आजादी से अछूती रही है। अमूमन हमारी जरूरत रोटी, कपड़ा, मकान और जल की थी कि हमको उद्योग धंधे का विकास तीव्र गति से करना पड़ा। मशीनें जितनी बड़ी से बड़ी होती गई आदमी उतना ही बौना होता गया। आने वाली पीढ़ी इस प्रकृति और पर्यावरण के साथ मानवीय छेड़छाड़ और खिलवाड़ के परिणाम की दुर्दशा झेलने वाली है यकीनन हम और हमारा समाज इस बात से अनभिज्ञ और बेखबर है। कृषि में नई नई तकनीक ट्रैक्टर, रसायनिक उर्वरक, कीटनाशकों के प्रयोग से भूमि बंजर होकर हताहत होगई है।
विकास का सही मायने माननीय शक्तियों के साथ ऊर्जा और उसकी शक्ति तथा सामर्थ्य का सही उपयोग ही होगा। जब से हमने विकास के पथ पर उड़ान भरी है उद्योगों की चिमनियों को ऊपर उठाया मोबाइल क्रांति का बटन दबाया ई-मेल पर सवार होकर विश्व संदेश को सुना तब से हमारे झरनों का कल-कल स्वर और संगीत बंद हो गया, पक्षियों का कलरव बंद हो गया पक्षी अब चीत्कार कर रहे हैं। नदी नाले सूखकर मृतप्राय हो गए हैं। समुद्र की लहरों की झंकार विलुप्त हो गई है और पानी खारा और खारा हो गया है। अब हमें यह सोचना है कि विकास के नाम पर हमें ग्रीन इंडिया चाहिए या इंटरनेट की सवारी पर डिजिटल इंडिया चाहिए।
बच्चों की झोली में इंटरनेट को डालकर डिजिटल जेनरेशन का सपना देखना चाहिए या प्रकृति की गोद में सुगंधित वायु की लहरों में खो जाना चाहिए। झरनों में बैठकर नौका विहार का आनंद लेना चाहिए या कंप्यूटर में बैठकर नेट खोल कर नन्हे मुन्ने की आंखों पर जोर डालकर उन्हें चश्में वाला बनाना चाहिए। हरा भरा हिंदुस्तान यानी कि ग्रीन इंडिया और डिजिटल इंडिया का सपना नदी के दो कभी ना मिलने वाले किनारे हैं। विकास के नाम पर असीमित उद्योग धंधों की बाढ़ आ गई है। भूमि समाप्त हो रही है साथ ही हमारी वायु विषैली हो गई है। रात में शहरी मकानों में बिजली के झालरों के सामने आकाश में रात्रि में चांद तारों की चमक फीकी पड़ गई है। जंगलों को हम ऐसे साफ करते गए जैसे वनों के विनाश की हमने शपथ ली है।
नगर बने महानगर बने ,मकान बने किंतु अब घर गायब होते गए हमें तब अक्ल आई जब चिड़िया चुग गई खेत, हमें विकास के नाम पर मानवीय सभ्यता से जुड़ी जमीन पानी, हरियाली,पक्षी जानवर सब चाहिए केवल अंधाधुन्ध कंक्रीट का विकास या इंटरनेट की रफ्तार नहीं चाहिए। इसके लिए हमें संसाधनों के अंधाधुंध प्रयोग पर अंकुश लगाना होगा। संसाधनों का इस्तेमाल अतिरेक में नहीं होना चाहिए । हम प्राकृतिक परियोजना तथा परिस्थितिकी की परियोजनाओं का स्वागत करना होगा सम्मान करना होगा। हमें अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सौर, पवन, बायोगैस, ज्वार तरंग लहरों को ऊर्जा का आधार बनाना होगा।
भारत में परिस्थितियां बड़ी विषम है एक तरफ बड़े-बड़े चमचमाते लाइटों से नहाती दिल्ली ,मुंबई ,बेंगलुरु जैसे महानगरों की रंगीन सड़कें हैं, ऊंची ऊंची इमारतें हैं, तेज गति की मेट्रो है,वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग का लुफ्त उठाते हुए युवक युवतियां है, दूसरी तरफ पसीने तरबतर किसान हैं कैरोसिन की चिमनी में बच्चों को शिक्षा देतीं माताएं हैं यानी कि इतनी डिजिटल विषमताएं भारत के अलावा विश्व के किसी भी कोने में नहीं है। भारत में विकास के नाम पर डिजिटलाइजेशन करने की आवश्यकता जरूर है पर गांव जंगलों नदियों और प्राकृतिक संसाधनों के निरस्तीकरण और विनाश की कीमत पर नहीं।
हमें यह निर्णय करना होगा कि भारत के विकास की हरित क्रांति के साथ-साथ डिजिटल इंडिया भी विकास की गति को बढ़ा रहे हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत कि हरित क्रांति का विकास ही डिजिटल इंडिया का स्वप्न को भी पूरा करेगा। इसके लिए स्वच्छ साफ-सुथरे संसाधन जैसे जल, खनिज, यूरेनियम ,थोरियम नहीं होगा तब तक नाभिकीय रिएक्टर की भट्टीयां कैसे चलेंगी। किसी कवि ने कहा है, "जो घर बनाओ तो एक पेड़ भी लगा लेना, पंछी सारे उपवन के चहचहा उठेंगे"
विकास का जो भी राजपथ हम तैयार करेंगे निश्चित तौर पर वह मार्ग हरित क्रांति या हरित विकास से होकर गुजरेगा, जिससे हम अपनी 141 करोड़ जनसंख्या को स्वच्छ पर्यावरण दे पाएंगे और एक नवीन भारत की संकल्पना को मूर्तरूप दे पाएंगे।
संजीव ठाकुर, स्तंभकार, चिंतक, लेखक,
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