संजीव-नी।

कविता

संजीव-नी।

एक दिया इधर भी।
एक दिया छत की मुंडेर पर जला आना,
जहां साया होता है गहन तमस का। 
 
एक दिया उस बूढ़ी मां के कमरे के आले पर जला आना,
जहां बेटे,बहू ,नाती,नातीने जाने से कतराते हों। 
 
एक दिया गांव के उस आंगन पर जला आना,
जहां से जाने के बाद बेटा माँ-बाप की मौत पर भी लौटकर न आया हो। 
 
एक दिया उन खेतों पर जला आना
जहां किसानों ने पसीना बहा अन्न पैदा किया और देश को खुशहाल बनाया । 
 
एक दिया उस चौखट पर जला आना,
जहां की विधवा मां का एकमात्र लाडला सीमा पर देश के नाम शहीद हो गया हो। 
 
एक दीया उस घर में भी जला आना,
जिस घर की नर्स मां 
नन्हे बच्चों को छोड़ कॅरोना के मरीजों की सेवा में काल कवलित हो गई हो। 
 
एक दीप विपन्न कुम्हारों की बस्ती में
जला आना,
जहां कुम्हारों के अथक परिश्रम और स्वेद के कणों से 
पवित्र माटी के दीपों को जग मे उजास का उपहार दिया हो।
और 
एक दिया अपने अंतर्मन में जला लेना
जहां दुनिया भर की इच्छा, कामना, स्पृहा, लिप्सा 
और जगत भर की लालसा निवास करती हो,
एक दिए की लौ से शायद पवित्र हो जाए 
मन, मस्तिष्क, समाज और संपूर्ण देश।
दीपावली की अशेष बधाइयों के संग अनंत शुभकामनाएं। 
 
संजीव ठाकुर

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