सनातनी विचारधारा और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति का संतुलन।

( देश वैश्विक मार्गदर्शन के लिए सक्षम ) 

सनातनी विचारधारा और आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति का संतुलन।

वर्तमान समय में वैश्विक प्रगति और आर्थिक स्रोत तंत्र के लिए आधुनिक तथा वैज्ञानिक शिक्षा जरूर अत्यंत आवश्यक है परंतु हमें केवल आधुनिक विचारधारा शिक्षा पद्धति पर निर्भर न रहकर अपनी सांस्कृतिक परंपराओं और सनातन संस्कृति के धरातल से जुड़ा रहना होगा तब जाकर ही सनातनी संस्कृत विचारधारा एवं आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा पद्धति की स्वीकार्यता का संतुलन समुचित एवं यथोचित तरीके से हो पाएगा । भारत का सांस्कृतिक, सनातनी, वैदिक इतिहास सदैव गौरवपूर्ण रहा है। वेदों, शास्त्रों ,पुराणों और सनातन संस्कृति एवं संस्कार में इतनी शक्ति है कि भारतीय संस्कृति अनंत काल तक कभी नष्ट नहीं हो सकती है। भारतीय संस्कृति का लचीलापन एवं व्यापक ग्राह्यता इतनी विशाल है कि ईस सभ्यता ने कई सभ्यताओं को अपने में समाहित कर एक विशाल धर्मनिरपेक्ष वातावरण निरूपित कर वृहद वट वृक्ष की तरह अपनी शाखाएं वैश्विक स्तर पर प्रचारित, प्रसारित की है।
 
यह वैदिक अध्यात्म योग और संस्कृति का ही प्रतिफल है कि भारत के नागरिक विश्व में चहुंओर निवास कर रहे हैं और अब समय आ गया है कि भारत को अपनी संस्कृति आध्यात्मिक तथा संस्कारों के आत्म बल के दम पर विश्व का नेतृत्व करना होगा एवं विश्व गुरु बनने की प्रक्रिया में नए नए सोपान निर्मित करने होंगे । प्रारंभ से ही शांति तथा मानवता को लेकर भारत में अपनी विकास यात्रा प्रारंभ की है आध्यात्मिक चिंतन और सनातनी इतिहास इस बात का गवाह है कि भारत विश्व शांति की बहाली के लिए विश्व को मार्गदर्शन देने का हौसला तथा क्षमता दोनों रखता है। अब यह समय आ चुका है कि भारत को विश्व का मार्गदर्शी प्रणेता बन जाना चाहिए।
 
जिंदगी का कैनवास जन्म से लेकर मृत्यु तक समुद्र की तरह विराट और गहराई लिए हुए होता है। जीवन में वयक्तिक, पारिवारिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, सामाजिक विकास की संभावनाओं के साथ मनुष्य अपना जीवन प्रारंभ कर विकास प्रगति तथा ऊंचाइयों को प्राप्त कर सकता है,बशर्ते उसके व्यक्तित्व में जीवन के प्रति जीजिविषा, संघर्ष करने की क्षमता, अनंत आत्म विश्वास और संयम के घटक मौजूद हो। ऐतिहासिक तौर पर भारतीय विकास सांस्कृतिक संरचना एवं संस्कार के मूलभूत तत्वों को लेकर दुनिया में अभूतपूर्व रहा है। वैसे भी भारतवर्ष सभ्यता से लेकर संस्कृति की प्रकृति के मामले में वैभवशाली इतिहास को समेटे हुए हैं। विकास और प्रगति के सोपान को कोई एक दिन वर्ष अथवा दशक में रेखांकित नहीं किया जा सकता, यह एक निरंतर, सतत एवं समय के साथ चलने वाली क्रिया की प्रतिक्रिया है। और प्रकृति सभ्यता तथा मानव जीवन में परिवर्तन एक अकाट्य सत्य और शाश्वत अभिक्रिया है।
 
व्यक्ति के जीवन तथा समाज या देश में विकास के संदर्भ में एवं घटकों को प्रारंभ से आदमी का धन उपार्जन, गरीबी भुखमरी से लड़ाई भूतकाल की कुरीतियों की विडंबना से संघर्ष का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। इन सब से समाज की प्रगति और विकास में राजाओं, सम्राटों की कूटनीति ,राजनीति सर्वोपरि रही है इतिहास से लेकर अब तक मनुष्य देश और विश्व के विकास में राजनैतिक नीति निर्देशक तत्व ही देश को बलवान, शक्तिहीन, भौगोलिक रूप से बड़ा या छोटा बनाते आए हैं। किसी भी राष्ट्र के राजा, सम्राट या राष्ट्र प्रमुख की अपनी क्षमता, शक्ति, ऊर्जा और उसके विवेक से उस राष्ट्र की प्रगति विशाल या न्यूनतम होती देखी गई है। भूतकाल में कई संघर्षशील एवं उत्साह से लबरेज यात्रियों के वृतांत हमारी नजरों में आए हैं यथा कोलंबस और वास्कोडिगामा जैसे अत्यंत ऊर्जावान संघर्षशील और साहसिक यात्रियों द्वारा लगभग नामुमकिन रास्तों की खोज कर एक मिसाल कायम की है।
 
नेपोलियन का एक बड़ा सूत्र वाक्य था कुछ भी असंभव नहीं है। बिस्मार्क जर्मनी के एक ऐसे सम्राट रहे हैं जिनके बारे में कहा जाता है की उनके हाथों में दो गेंद तथा 3 गेंदें हवा में होती थी, यूरोप का जादूगर भी कहलाता था, पूर्व से ही समुद्रगुप्त ,कनिष्क, सम्राट अशोक, चंद्रगुप्त मौर्य, शेरशाह सूरी जैसे शासकों का अदम्य आत्मविश्वास एवं संघर्ष करने की क्षमता के फल स्वरुप भी भारत आज इस स्वरूप में विद्यमान है। अर्थशास्त्रीय दृष्टिकोण से भी किसी भी राष्ट्र में सदैव विकास वैभव और आर्थिक तंत्र को मजबूत करने की संभावनाएं अवस्थित रहती हैं। भारत की विशाल जनसंख्या को देखते हुए भारत में गरीबी, भुखमरी ,बाढ़ तथा अन्य विभीषिका सदैव आती जाती रहती हैं।
 
विशाल जनसंख्या के होने के कारण भारत में ही भारत की बड़ी जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन कर रही है और केवल भारत के कुछ नागरिकों को ही सारी जीवन की सभी सुविधाएं उपलब्ध हैं, बाकी लोग इन सुविधाओं से वंचित भी हैं। हमारा देश स्वतंत्रता के बाद से ही आवाज की कमी भूख गरीबी भ्रष्टाचार काला धन हवाला कुपोषण बेरोजगारी की बड़ी समस्याओं से जूझ रहा है। भारत की विशाल जनसंख्या के बावजूद ऐतिहासिक तौर पर देश सांस्कृतिक वैचारिक और संस्कारी ग्रुप से सदैव समृद्ध रहा है और धार्मिक रूप से भी देश में ज्ञान की जड़े बहुत गहराई तक हैं। भारत को आध्यात्मिक रूप से समृद्ध करने के लिए वेद, पुराण, उपनिषद, गीता ,रामायण ,महाभारत महा ग्रंथों की पृष्ठभूमि बड़ी ही शक्तिशाली है।
 
देश में अनेक साधु संत ज्ञानी जिनमें मोहम्मद मूसा कबीर, रैदास, नामदेव, तुकाराम चैतन्य, तुलसीदास शंकरदेव जैसे महापुरुषों ने देश के सांस्कृतिक आध्यात्मिक विकास मैं अभूतपूर्व योगदान दिया है। भारत में अनेक विदेशी आक्रमणों को झेल कर उन्हें आत्मसात किया है किंतु हमारी संस्कृत पाली एवं प्राकृत भाषा अन्य भाषाओं के साथ आज भी समृद्ध है। भारत में अनेक भाषा क्षेत्र एवं बोलियां हैं किंतु हिंदी, पंजाबी, गुजराती, बांग्ला, मराठी ,असमिया भाषाएं उसी तरह पल्लवित पुष्पित हो रही हैं जैसे की संस्कृत और प्राकृत पाली भाषा होती रही है। भारत में स्वाधीनता के बाद विकास के प्रगति के पथ पर वैज्ञानिक क्षेत्र में अभूतपूर्व विकास किया और पृथ्वी से लेकर नभ तक हर क्षेत्र में मानव की अतीव उत्कंठा, जीजिविषा के कारण हमने चांद पर भी अपने वायुयान भेजें हैं।
 
देश के नागरिकों की भौतिकवादी सुविधा के लिए भी हमने वतानुकुलित यंत्र ,वायुयान तेज चलने वाली ट्रेनें और वायुमंडल में अनेक ऐसे तथ्यों को जो आज तक छुपे हुए थे उजागर कर अपने महत्व के लिए इसका उपयोग करना शुरू किया है। यह कहावत आशाओं पर आकाश टिका हुआ है और आकाश का कोई अंत नहीं यानी मनुष्य की इच्छाओं का कोई अंत नहीं है मनुष्य पर सही प्रतीत होती है।इसी तरह प्रगति और विकास का भी कोई अंत या अनंत नहीं है। भारत देश में वैश्विक स्तर पर राजनैतिक सामाजिक वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक स्तर पर काफी प्रगति की एवं विश्व में योग अध्यात्म दर्शन का लोहा भी मनवाया है।
 
मनुष्य की अभिलाषा का कोई निश्चित लक्ष्य नहीं है, मनुष्य मूल रूप से अत्यंत महत्वकांक्षी,लोलुप एवं इच्छाओं का दास हुआ करता है, ऐसे में पूर्व में किए गए कार्यों को निरंतर सुधार कर उसे नए रूप में प्राप्त करना मनुष्य की अभिलाषा हो सकती है,पर इसके लिए अथक मेहनत संघर्ष आत्मविश्वास एवं संयम की आवश्यकता होगी तभी जाकर हम अपने नए-नए लक्ष्यों को विकास तथा प्रगति के पैमाने पर टटोलकर आगे बढ़ा सकते हैं। पर लक्ष्य की प्राप्ति के साधन जरूर सच्चे ,पवित्र और मानव कल्याण की ओर अग्रेषित होने चाहिए, तब ही विकास प्रगति चाहे वह आध्यात्मिक, सामाजिक, धार्मिक, राजनीतिक अथवा वैज्ञानिक क्यों न हो सफल हो सकती है।
 
संजीव ठाकुर, स्तंभकार, चिंतक, लेखक

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