साहित्य और सनातन संस्कृति की वर्तमान में सार्वभौमिक स्वीकार्यता।
(साहित्य जीवन की आलोचना)
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मुंशी प्रेमचंद जी ने साहित्य को "जीवन की आलोचना" भी कहा है। साहित्य एक स्वायत्त आत्मा है, और उसकी सृष्टि करने वाला भी ठीक से नहीं घोषणा कर सकता है कि उसके द्वारा रचे गये साहित्य की अनुगूंज कब और कहां तक जाएगी। इस तरह साहित्य का सत्य समाज की नैतिक चिंता है। समाज की विसंगतियों को दूर करने वाला एक बड़ा रक्षक भी है।साहित्य सत्य की साधना शिवत्व की कामना और सौंदर्य की अभिव्यंजना हैl शुद्ध, जीवंत एवं उत्कृष्ट साहित्य मानव एवं समाज की संवेदना और उसकी सहज वृत्तियों को युगों युगों तक जनमानस में संचारित करता आ रहा है और यही कारण है कि कालिदास, सूरदास, कबीर, प्रेमचंद, शेक्सपियर की कृतियाँ आज भी लोगों के मध्य अपनी रस सुधा से हृदय को भिगोती रहती हैl
राजनैतिक और भौगोलिक दृष्टि से विश्व कितने ही भागों में बट जाए, मतभेद और विवादों की खाई कितनी भी गहरी हो जाए, पर साहित्य धरातल पर सब सामान्य और एक हैं। दुनिया में मानव एक है जिसकी रचनाएं सभी जगह एक और समान हैl यह भी सत्य है कि किसी भी देश की भाषा और साहित्य के अध्ययन के आधार पर वहां की सभ्यता संस्कृति के विकास का सहज विधि का अनुमान लगाया जा सकता है। साहित्य में मानवीय समाज के सुख-दुख, आशा निराशा, उत्थान पतन का स्पष्ट चित्रण होता है। साहित्य की इन्हीं विशेषताओं के कारण साहित्य कालजई और सास्वत होता है।
प्राचीन मनीषियों द्वारा लिखा गया साहित्य अत्यंत आकर्षक एवं प्रिय इसलिए भी लगता है कि मनुष्यता का एक संपूर्ण चरित्र चित्रण होता है। साहित्य और संस्कृति एक दूसरे से गहरे जुड़े हुए हैं। मानवी जीवन की तरह साहित्य मैं भी संघर्ष और निरंतरता की निरंतरता समाहित होती है। समय और परिस्थिति की संस्कृति का प्रभाव साहित्य पर निरंतर परिलक्षित होता रहता है। यह साहित्य ही है जो वर्तमान को सामने रख भविष्य की रूपरेखा तय करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। समाज की सुषुप्त विवेक शक्ति को जागृत कर समाज का दिशा दर्शन भी करता है। अपने समय की विसंगतियों को दूर करने के साथ ही गुणात्मक साहित्य सदैव प्रासंगिक बना रहता है।
समाज और जनमानस को आलोक स्तंभ की तरह पल्लवित एवं प्रकाशित करता है। वर्तमान के भौतिक समय में जब मानवता और संवेदना की पीड़ा की गूंज सभी जगह फैली हुई है, ऐसे में सत साहिब से और अर्वाचीन संस्कृति दिशा दर्शन और माननीय संवेदनाओं को संबल देने में अत्यंत प्रासंगिक भी है। यह कतई कहने की आवश्यकता नहीं है कि श्रेष्ठ साहित्य वही है जो मनुष्य के भीतर और बाहर प्रासंगिक मूल्यों,संदेश और उद्देश्यों को समाए रखता है। कबीर दास रविंद्र नाथ टैगोर, शरद चंद, जयशंकर प्रसाद, रेणु, प्रेमचंद, शेक्सपियर, होमर, मिल्टन आदि का साहित्य जनमानस के मन में और जीवन में रच बस गया है। इन्होंने प्रतिभा सापेक्ष श्रेष्ठ रचनाएं समाज को दी हैं।
और यही कारण है इनकी रचनाओं से संस्कृति की झलक स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। साहित्य सदैव सामाजिक प्रक्रिया के आर्थिक राजनीतिक और समकालीन विचारधारा से बहुत ज्यादा प्रभावित रहा है। उनको प्रभावित भी करता है। इस तरह साहित्य संस्कृति के परिपेक्ष में देश कालिक होता है। शाहिद आदर्शवादी हो या आशावादी इस संदर्भ में अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग मत हैं। इस जीवन की आपाधापी में जहां निराशा कुंठा और समाजिक अंधविश्वास का भ्रम फैला है। वहां आशावादी दृष्टिकोण साहित्य के दायित्व को और गहरा बनाता है।
इन दोनों बातों के समाधान के लिए जयशंकर प्रसाद की चंद पंक्तियां बहुत ही प्रासंगिक होगी कि "जीवन की अभिव्यक्ति यथार्थवाद है और अभाव की पूर्ति आदर्शवाद। साहित्य की पूर्णता के लिए यथार्थवाद और आशावाद दोनों का समन्वित रूप होना चाहिए", वास्तव में संस्कृति साहित्य के लिए एक प्रेरणा है ।और संस्कृति साहित्य पर समय और काल पर अवलंबित होती है। साहित्य और संस्कृति दूसरे एक दूसरे के निश्चित तौर पर पूरक हैं। वर्तमान संदर्भ में ज्यादा प्रासंगिक भी। आशा करते हैं कि हिंदी साहित्य वैश्विक फलक पर बहुत ही शीघ्र अपना परचम स्थापित करेगा।
संजीव ठाकुर, स्तंभकार, चिंतक, लेखक
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