संजीव-नी। 

संजीव-नी। 

कविता
 
 
तमाम रातों का जुगनू बना दिया मुझको। 
 
तेरी बेरुखी ने नया तजुर्बा दिया मुझको
कैसे जीते यहाँ यह सिखा दिया मुझको। 
 
कोशिश लाख करूं उस पल को भूलता नहीं
बेचैनी का एक सिलसिला दिया मुझको। 
 
तोक अपने उसूलों के सलीब पर मुझको
लोगों ने यूँ ही मसीहा बना दिया मुझको। 
 
फिक्र न कल की ना परसों की कोई चिंता
जिंदगी ने एक नया तजुर्बा दिया मुझको। 
 
जिंदगी ने पत्थरों से मार मार कर अब
टूटा हुआ आईना बना दिया मुझको। 
 
उसने आंखों में मेरी यादें भरकर "संजीव"
तमाम रातों का जुगनू बना दिया मुझको। 
 
संजीव ठाकुर

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