धर्म परिवर्तन कर आरक्षण का लाभ उठाने की प्रवृत्ति खतरनाक 

धर्म परिवर्तन कर आरक्षण का लाभ उठाने की प्रवृत्ति खतरनाक 

धर्म परिवर्तन बड़ी चुनौती बनकर सामने आ रही है। ईसाई और इस्लाम धर्म में विश्वास रखने वाले धर्म गुरु सनातन धर्म में विश्वास रखने वालों को अपने धर्म में लाने के लिए साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर चल रहे हैं। आरक्षण का लाभ केवल हिन्दू धर्म में आस्था रखने वाले दलित व पिछड़े वर्ग के लिए ही है। लेकिन लोभ या लालच में आकर इसी वर्ग के अधिकतर लोग धर्म परिवर्तन कर रहे हैं। पंजाब में ऐसे एक नहीं अनेक लोग आप को मिल जाएंगे जो हैं तो पिछड़े व दलित वर्ग से हैं और कईयों ने आरक्षण का लाभ भी ले रखा है। लेकिन अपने नाम के साथ मसीह भी लगाते हैं, क्योंकि ऐसा करने से उन्हें कान्वेंट स्कूलों और मिशनरी अस्पतालों में मुफ्त या कम खर्च पर बच्चे को शिक्षा व सभी को स्वास्थ्य संबंधी सेवाएं मिलती हैं।
 
देश के उच्चतम न्यायालय ने एक ऐसे ही मामले की सुनवाई करते हुए कहा है कि 'सच्ची आस्था के बिना धर्म परिवर्तन करना संविधान के साथ धोखा है।' जस्टिस पंकज मित्तल और जस्टिस आर. महादेवन की पीठ ने महिला सी. सेल्वारानी की याचिका पर 26 नवंबर को यह फैसला सुनाया। साथ ही मद्रास हाई कोर्ट का 24 जनवरी का फैसला बरकरार रखा, जिसमें उसने सेल्वारानी को अनुसूचित जाति (एससी) प्रमाणपत्र देने से इन्कार कर दिया था। याचिकाकर्ता ने ईसाई धर्म अपनाया था, लेकिन बाद में नौकरी पाने के लिए हिंदू होने का दावा किया था। फैसले में जस्टिस महादेवन ने कहा कि अनुच्छेद-25 के तहत प्रत्येक नागरिक को पसंद के धर्म का पालन करने और मानने का अधिकार है।
 
कोई भी व्यक्ति दूसरा धर्म तभी अपनाता है जब वह उसके सिद्धांतों, मतों एवं आध्यात्मिक विचारों से प्रेरित होता है। अगर मतांतरण का उद्देश्य दूसरे धर्म में वास्तविक आस्था न होकर आरक्षण प्राप्त करना है तो इसकी अनुमति नहीं दी जा सकती। ऐसे छिपे उद्देश्यों वाले लोगों को आरक्षण का लाभ देने से आरक्षण नीति का सामाजिक उद्देश्य निष्फल हो जाएगा। साक्ष्यों से स्पष्ट है कि अपीलकर्ता ईसाई धर्म को मानती हैं और नियमित रूप से चर्च जाती है। इसके बावजूद वह हिन्दू होने का दावा करती है और नौकरी पाने के लिए एससी प्रमाणपत्र मांग रही है। उसका यह दोहरा दावा अस्वीकार्य है और ईसाई धर्म की दीक्षा लेने (बपतिस्मा) के बाद वह खुद की हिन्दू पहचान जारी नहीं रख सकती।
 
गौरतलब है कि याचिकाकर्ता महिला सेल्वारानी का जन्म हिंदू पिता और ईसाई मां के यहां हुआ। जन्म के कुछ समय बाद ही उसका ईसाई के रूप में बपतिस्मा कर दिया गया था। बाद में उसने हिंदू होने का दावा किया और वर्ष 2015 में पुडुचेरी में अपर डिवीजन क्लर्क पद के लिए आवेदन करने को एससी प्रमाणपत्र की मांग की। दस्तावेजी साक्ष्यों से महिला के ईसाई होने की पुष्टि हुई। उसके पिता वल्लुवन जाति (एससी) से हैं। वल्लुवन जाति को सुप्रीम कोर्ट के आदेश, 1964 के तहत एससी की मान्यता प्राप्त है। सुप्रीमकोर्ट ने अपने महत्वपूर्ण फैसले में कहा है कि अपीलकर्ता महिला ने ईसाई धर्म का पालन जारी रखा, लिहाजा उसका हिंदू होने का दावा स्वीकार करने के योग्य नहीं है।
 
जब अपीलकर्ता की मां ने शादी के बाद हिंदू धर्म अपना लिया था तो उसे अपने बच्चों का चर्च में बपतिस्मा नहीं कराना चाहिए था। इसके साथ ही यह बात भी सत्यापित हुई है कि अपीलकर्ता के माता-पिता का विवाह भारतीय ईसाई विवाह अधिनियम, 1872 के तहत पंजीकृत हुआ था। इसके साथ ही अदालत ने कहा कि तथ्यों के निष्कर्षों में कोई भी हस्तक्षेप अनुचित है, जब तक निष्कर्ष इतने विकृत न हो कि अदालत की अंतरात्मा को झकझोर दें। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि ईसाई धर्म अपनाने वाले लोग अपनी जातिगत पहचान खो देते हैं। ऐसे में अनुसूचित (एससी) जातियों को मिलने वाले लाभ पाने के लिए उन्हें पुनः मतांतरण और मूल जाति में स्वीकार्यता के साक्ष्य उपलब्ध कराने होंगे।
 
याचिकाकर्ता महिला ने दोबारा हिंदू धर्म को अपनाने का दावा किया है, लेकिन उसके दावे के पीछे सार्वजनिक घोषणा समारोहों या विश्वसनीय दस्तावेज का अभाव है। रिकार्ड में ऐसा कुछ भी नहीं है जो दर्शाता हो कि उसने या उसके परिवार ने पुनः हिंदू धर्म को अपना लिया है। पंजाब में ही नहीं देश के अन्य प्रदेशों में धर्म परिवर्तन कराने का कार्य निरंतर चलता आ रहा है। स्थानीय स्तर पर जब कोई विरोध की आवाज उठती है तो धर्म परिवर्तन का सिलसिला कुछ देर के लिए धीमा हो जाता है। कुछ समय बीतने के बाद फिर तेज हो जाता है। पंजाब में सीमावर्ती गांवों में केसधारी मसीह बहुत मिल जाएंगे। यही स्थिति दोआबा व मालवा की भी है।इस तरह से अब धर्मपरिवर्तन के बाद भी आरक्षण का लाभ उठा रहे लोगों पर लगाम लगाने की व्यवस्था की स्थापना की गई है।
मनोज कुमार अग्रवाल 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं) 

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