क्या वास्तव मेंजनप्रतिनिधिवेतन या पेंशन के हकदार हैं
भारत एक गौरवशाली लोकतांत्रिक गणराज्य है, जो इस माह अपना 76वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। हमारा संविधान, जो लोकतंत्र की नींव और नागरिक अधिकारों का संरक्षक है, लागू हुए 75 वर्षों का ऐतिहासिक पड़ाव पूरा कर चुका है। हालांकि, विषय विचारणीय है कि संविधान में उल्लिखित आदर्श और सिद्धांत, जिनका उद्देश्य सभी नागरिकों को समान अधिकार और न्याय सुनिश्चित करना था, उनके अर्थों को समय-समय पर स्वहित में तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की प्रवृत्ति भी उतनी ही पुरानी हो गई है।
यह प्रवृत्ति संविधान के मूल उद्देश्य और राष्ट्र निर्माण के सपने को धूमिल करने का कार्य करती है। यह कहना गलत नहीं होगा कि यहां शब्दों की परिभाषाएं अक्सर अपने-अपने लाभ के अनुसार गढ़ी जाती हैं। यह विचित्र बात है कि “जनसेवा” और “जनसेवक” जैसे शब्द, जिनका सीधा अर्थ होता है –नि:स्वार्थ भाव से जनता की सेवा करना। परन्तु इनके अर्थ का उपयोग अक्सर सत्ता और लाभ अर्जित करने के लिए किया जाता है। यह विश्लेषण इस बात पर केंद्रित है कि किस प्रकार जनता के प्रतिनिधि के रूप में चुने गए जनसेवक वास्तव में वेतनभोगी कर्मचारी बन जाते हैं और पांच साल की सेवा के बाद भी पेंशन जैसी सुविधाओं के अधिकारी होते हैं।
लोकतंत्र में जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन इस विश्वास के साथ करती है कि वे उनके अधिकारों और कल्याण के लिए कार्य करेंगे। ये प्रतिनिधि संसद (लोकसभा) या राज्य विधानसभाओं में जनता की आवाज़ बनते हैं। इन्हें “जनसेवक” कहा जाता है, लेकिन व्यवहार में इनका कार्य “सेवा” से अधिक “सुविधा और लाभ” की ओर झुका हुआ प्रतीत होता है। जब कोई व्यक्ति किसी सरकारी या निजी संस्थान में नौकरी करता है, तो उसे निश्चित वेतन और भत्ते दिए जाते हैं। यह वेतन उसके कार्य और प्रदर्शन के आधार पर तय होता है।
इसी तरह, जनप्रतिनिधियों को भी वेतन और अनेक प्रकार के भत्ते दिए जाते हैं। ये भत्ते जनता के पैसों से, यानी करदाताओं के धन से आते हैं। इस प्रकार, इन प्रतिनिधियों का मूल उद्देश्य जनसेवा न होकर एक प्रकार की नौकरी का स्वरूप ग्रहण कर लेता है। यहां परिभाषा का एक बड़ा अंतर्विरोध सामने आता है। यदि कोई व्यक्ति जनसेवक है, तो उसे नि:स्वार्थ भाव से कार्य करना चाहिए। लेकिन वास्तविकता यह है कि जनसेवक के रूप में चुने गए प्रतिनिधि अपने पांच साल के कार्यकाल के दौरान वेतन, भत्ते, यात्रा भत्ते, आवासीय सुविधाएं, और अन्य कई प्रकार के लाभ प्राप्त करते हैं।
यह सब इस बात की ओर संकेत करता है कि वे “सेवक” से अधिक “वेतनभोगी कर्मचारी” की भूमिका में हैं। यदि हम इसे एक साधारण कर्मचारी के संदर्भ में देखें, तो एक आम सरकारी कर्मचारी को पेंशन प्राप्त करने के लिए कम से कम 20-30 वर्षों तक सेवा करनी होती है। लेकिन जनता के चुने गए प्रतिनिधि केवल पांच वर्ष की सेवा के आधार पर पेंशन के अधिकारी बन जाते हैं। क्या यह व्यवस्था न्यायोचित है?
पेंशन का उद्देश्य है कि सेवा निवृत्त होने के बाद व्यक्ति को आर्थिक सुरक्षा प्रदान की जाए। यह उन लोगों के लिए है जो वर्षों तक निरंतर और समर्पित रूप से कार्य करते हैं। लेकिन जब यह सुविधा पांच वर्ष के सीमित कार्यकाल के लिए भी दी जाती है, तो यह न केवल संसाधनों का दुरुपयोग है, बल्कि इसे नैतिकता और न्याय की दृष्टि से भी गलत कहा जा सकता है।
भारत जैसे देश में, जहां बड़ी संख्या में लोग निर्धनता रेखा से नीचे जीवनयापन कर रहे हैं और लाखों युवा रोजगार के अवसरों की प्रतीक्षा कर रहे हैं, वहां जनप्रतिनिधियों का इस प्रकार की सुविधाएं लेना कहां की समझदारी है? वैसे भी जिस देश में महात्मा गांधी ने तब तक तन पर एक धोती पहनना ही स्वीकार किया था, जब तक कि समस्त लोगों के तन न ढांपे जा सकें, तो उन्हें अपना आदर्श मानने वाले हमारे जनप्रतिनिधि किस मुंह से इतनी सुविधाएं स्वीकार कर रहे हैं?
यह कहना भी महत्वपूर्ण है कि इस पूरी व्यवस्था में जनता की भूमिका को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। जनता अपने प्रतिनिधियों को चुनने से पहले उनके कार्यों, नैतिकता और उनकी सेवा भावना का मूल्यांकन नहीं करती। अक्सर यह चयन जाति, धर्म, या व्यक्तिगत लाभ के आधार पर किया जाता है। यह प्रवृत्ति उन प्रतिनिधियों को प्रोत्साहित करती है, जो जनसेवा से अधिक स्व-सेवा में रुचि रखते हैं। आज जनप्रतिनिधि की आय पांच वर्ष के भीतर ही करोड़ों में पहुंच जाती है। पता नहीं जनसेवक बनते ही उनके घर कौन सा कल्पवृक्ष उग आता है कि वे जो भी इच्छा प्रकट करते हैं, वह तुरंत पूरी हो जाती है।
धन की वर्षा होने लगती है, आगे पीछे चाटुकारों की फौज घूमने लगती है और ऊपर से भविष्य की कोई चिंता नहीं रहती। पेंशन इत्यादि सभी सुविधाओं का इंतजाम जो हो जाता है। जनता को यह समझने की आवश्यकता है कि उनके चुने हुए प्रतिनिधि उनकी सेवा के लिए हैं, न कि अपने व्यक्तिगत लाभों के लिए। इसके लिए जागरूकता, शिक्षा और लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं में सक्रिय भागीदारी आवश्यक है।
जनप्रतिनिधियों की पेंशन व्यवस्था में बदलाव की आवश्यकता है। यह व्यवस्था इस तरह होनी चाहिए कि केवल उन जनप्रतिनिधियों को पेंशन मिले, जिन्होंने लंबे समय तक जनता की सेवा की हो और जिनका योगदान स्पष्ट और उल्लेखनीय हो, जो धरातल पर दिखाई देता हो। इसके अलावा, यह भी सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि प्रतिनिधियों को मिलने वाले वेतन और भत्ते केवल आवश्यकताओं तक सीमित हों, न कि उन्हें विलासिता का साधन बना दिया जाए।
भारत को अन्य लोकतांत्रिक देशों की व्यवस्था से प्रेरणा लेनी चाहिए। कई देशों में, जनप्रतिनिधियों को पेंशन की सुविधा केवल तभी दी जाती है, जब वे कई वर्षों तक सेवा करते हैं और उनके योगदान को समाज के लिए उपयोगी माना जाता है। इसके अतिरिक्त, वहां जनता के पैसों का दुरुपयोग रोकने के लिए सख्त कानून और नीतियां लागू की गई हैं।
शब्दों की परिभाषाएं और उनका व्यवहारिक उपयोग समाज की नैतिकता और न्याय का प्रतिबिंब होते हैं। “जनसेवा” और “जनसेवक” जैसे शब्दों का सही अर्थ तभी सिद्ध हो सकता है, जब ये नि:स्वार्थ सेवा और समर्पण के साथ जुड़े हों। यह आवश्यक है कि जनता अपने प्रतिनिधियों का चयन सोच-समझकर करे और यह सुनिश्चित करे कि वे सही मायनों में सेवा के लिए प्रतिबद्ध हों। साथ ही यह भी सुनिश्चित होना चाहिए कि प्रतिनिधियों को केवल आवश्यक सुविधाएं दी जाएं और पेंशन जैसी सुविधाओं का दुरुपयोग न हो। यदि हम इस दिशा में सुधार कर पाए, तो ही हमारा लोकतंत्र सही मायनों में “जनता का, जनता के लिए, और जनता के द्वारा” कहा जा सकेगा।
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