वृक्षारोपण : अब नहीं तो कब ?
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उस कोरोना काल को याद कीजिये जब कोविड प्रभावित लोग ऑक्सीजन के बिना तड़प तड़प कर मर रहे थे। पैसे ख़र्च करने पर भी ऑक्सीजन नहीं मिल पा रही थी। देश के तमाम ऑक्सीजन प्लांट्स के फ़ेल होने की ख़बरें सुनाई दे रही थीं। शमशान घाट लाशों से पटे पड़े थे। नदियों में लावारिस लाशें तैरती नज़र आ रही थीं। उसी दौरान अनेक समझदार लोग ऐसे भी थे जिन्होंने पेड़ों पर अपना डेरा बना लिया था। कोई पेड़ के ऊपर चारपाई बांध कर लेटा बैठा रहता था तो तमाम लोग शुद्ध व ताज़ी ऑक्सीजन की चाह में पेड़ों के नीचे पनाह लेने को मजबूर थे। उस दौर में देश के लाखों ग्रामीणों ने तो बग़ीचों में ही अपना लगभग स्थाई अड्डा बना लिया था। गोया महामारी जैसे संकट के उस दौर में भी प्रकृति हमें पेड़ों व दरख़्तों के माध्यम से निःशुल्क ऑक्सीजन प्रदान कर रही थी। एक युवा पेड़ हमें एक वर्ष में लगभग 7 क्विंटल ऑक्सीजन प्रदान करता है जबकि हमारे लिये हानिकारक व हमारे ही द्वारा विभिन्न माध्यमों से छोड़ी जाने वाली लगभग 20 टन कॉर्बन डाई ऑक्साइड को भी खींच (सोख ) लेता है।
आज पूरा विश्व ग्लोबल वार्मिंग का शिकार है। गत दस वर्षों से पृथ्वी के लगातार बढ़ते तापमान के कारण पूरे विश्व में ग्लेशियर पिघलने लगे हैं।आदिवासियों से उनके जल जंगल ज़मीनों के अधिकार छीन कर उद्योगपतियों के हवाले किये जा रहे हैं। ब्राज़ील से लेकर भारत तक बड़े पैमाने पर विकास के नाम पर वृक्षों की कटाई की जा रही है।मिसाल के तौर पर मध्य भारतीय राज्य छत्तीसगढ़ में हसदेव अरण्य वन के लाखों पेड़ अडानी द्वारा संचालित परसा ईस्ट केते बासेन कोयला खदान के विस्तार के लिये स्थानीय ग्रामीणों व आदिवासियों के प्रबल विरोध के बावजूद पुलिस बल की निगरानी में काटे जा रहे हैं। जबकि हमारे देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पर्यावरण दिवस पर 'एक पेड़ माँ के नाम' अभियान का संकल्प लिया है। प्रचार के अनुसार इसी अभियान के तहत मध्यप्रदेश में साढ़े पांच करोड़ पौधे लगाए जाएंगे और इसी क्रम में 51 लाख पौधे केवल इंदौर में लगाये जाने की योजना है। इस समय देश का शायद ही कोई ऐसा विभाग हो जिसने वृक्षारोपण को लेकर सक्रियता न दिखाई हो।
इसका एक प्रमुख कारण यह है कि इस वर्ष गर्मी का जितना प्रकोप भारत सहित पूरी दुनिया ने झेला उतनी प्रचंड गर्मी पहले कभी नहीं देखनी व सहनी पड़ी। पूरे विश्व में लाखों लोग तेज़ गर्मी की तपिश सहन न करते हुये तड़प कर मर गये। इसलिये इस भीषण गर्मी में भी लोगों को वृक्षों ने आकर्षित किया तथा पेड़ों ने अपनी ज़रूरत का एहसास कराया। ग़ौरतलब है कि एक बड़े वृक्ष के नीचे औसतन चार डिग्री तापमान कम रहता है। साथ ही यही वृक्ष तेज़ धूप की तपिश से भी बचाता है। वर्तमान युग में बढ़ती गर्मी का एक कारक प्रदूषण भी है। प्रदूषण में धुएं के अतिरिक्त धूल मिटटी शोर ग़ुल यानि ध्वनि प्रदूषण का भी अहम योगदान है। परन्तु एक स्वस्थ वृक्ष एक वर्ष में न केवल 20 किलोग्राम से अधिक धूल मिट्टी अपने आप में सोख लेता है बल्कि शोर ग़ुल यानि ध्वनि प्रदूषण को भी कम करता है। इतना ही नहीं बल्कि यही वृक्ष क़रीब 1 लाख वर्ग मीटर प्रदूषित हवा का भी निस्पंदन करता है। यही वृक्ष 80 किलोग्राम पारा, लीथियम व लेड जैसी ज़हरीली धातुओं के मिश्रण को भी सोखने की क्षमता रखता है।
पेड़ पौधों की अहमियत को वैसा तो कोविड काल ने ही लोगों को ठीक से समझा दिया था। ख़ासकर शहरी जीवन बिताने वाले लोगों को तो कुछ ज़्यादा ही। क्योंकि कोविडकाल के बाद पूरे देश में शहरी इलाक़ों में गमलों व इनमें पौधे लगाने का चलन पहले से कई गुना ज़्यादा बढ़ गया है। पक्की फ़र्श वाले मकानों में रखे हुये पर्याप्त मात्रा में गमले में लगे पौधे बेशक एक घर के तापमान को तो नियंत्रित करने व ऑक्सीजन देने की क्षमता तो रखते ही हैं। यह कोविड काल की ही दहशत है जिसके चलते पूरे देश में प्लास्टिक,मिटटी व सीमेंट के गमलों तथा नर्सरीज़ में पौधों की बिक्री कोविड काल के बाद कई गुना अधिक हो चुकी है।
वृक्षों का बादलों से भी गहरा नाता है। आम तौर पर रेगिस्तानी क्षेत्रों में बारिश इसलिए नहीं होती या अत्यधिक कम होती है क्योंकि वहां पर्याप्त संख्या में वृक्ष नहीं होते। जबकि दुनिया में अनेक घने जंगलों के इलाक़े ऐसे भी हैं जहाँ घने जंगलों के कारण अत्यधिक वर्षा होती है। ऐसे घने जंगलों को वर्षावन भी कहा जाता है। गोया वृक्ष,बादल ,बारिश हरियाली मानव जीवन और ख़ुशहाली का आपस में एक दूसरे से सीधा नाता है। नदी नालों के कटाव को रोकने में भी वृक्ष अहम भूमिका अदा करते हैं। यानी बाढ़ रोकने में सहायक होते हैं। हमें अध्ययन करने से तो यहाँ तक पता चलता है कि समुद्री किनारों पर पाए जाने वाले मैंग्रोज़ के पेड़ व इन के घने जंगल सुनामी की गति को नियंत्रित करने तक का काम करते हैं। इतना ही नहीं बल्कि यह समुद्री क्षेत्र के विस्तार को भी रोकते हैं। जबकि इन पेड़ों की आधी जड़ें भी धरातल के ऊपर होती हैं।
बहरहाल,वृक्षारोपण को इस समय मानव जीवन के अस्तित्व से जोड़कर देखने की ज़रुरत है। किसी सरकार,शासन या प्रशासन की तरफ़ मुंह देखने के बजाये जनता को स्वयं इसे जनांदोलन के रूप में लेना होगा और अपनी आदतों में शामिल करना होगा। याद रहे कि सरकारें वृक्षारोपण का शोर कर सकती हैं,इसपर चलाये जाने वाले अभियान का प्रचार कर सकती हैं,इसके नाम पर बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार किया जा सकता है। और तो और लगे लगाये दरख़्तों व जंगलों को कार्पोरेट्स के हित में कटवाने की भागीदार भी हो सकती हैं। विज्ञापनों व साक्षात्कार के माध्यम से इसके महत्व का बखान कर सकती हैं परन्तु चूँकि यह 'वोट बैंक ' से जुड़ा विषय नहीं इसलिये इसके प्रति उतनी गंभीरता नहीं दिखातीं जितनी कि ज़रूरत है।
लिहाज़ा आज देश के प्रत्येक नागरिक को चाहे वह बच्चा,बूढ़ा,जवान महिला कोई भी हो उसे वृक्षारोपण को अपनी आदतों में शामिल करना होगा। स्वयं उसकी देखभाल व निगरानी करनी होगी।मां के नाम का केवल एक पेड़ ही काफ़ी नहीं बल्कि प्रत्येक व्यक्ति को ख़ासतौर पर वर्षाऋतु में जहाँ और जितने हो सकें अधिकतम वृक्ष लगाने होंगे। इसी अपने जीवन की दैनिक गतिविधियों में शामिल किये जाने की ज़रुरत है। शादी विवाह,मरना जीना ,जन्मदिन मरणदिन विवाह अथवा जन्म या मृत्यु की सालगिरह बरसी प्रत्येक अवसर को यादगार बनाने हेतु हर इन अवसरों पर वृक्षारोपण करें। यदि धरती के बढ़ते तापमान के दौर में वृक्षारोपण के प्रति अब भी हम गंभीर व सक्रीय नहीं हुये तो और कब होंगे ?
तनवीर जाफ़री
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