संजीव-नी। 

कविता

संजीव-नी। 

जाते ही माँ के सारे दिल भी बट गए। 
 
पर्दे रिश्तों के भी सारे परे हट गए
जाते ही माँ के दिल भी सारे बट गए। 
 
मुद्दतों बाद मिलनें से संभला नही जुनूँ
देखा मुझे तो दौड़ गले से लिपट गए। 
 
वक्त बुरा हो तो साथ देता नहीं कोई
सूरज निकलते ही काले साये छट गए। 
 
दौरे मुसीबत मिली दोस्तों की फेहरिस्त
कुछ नाम उभर गए कुछ नाम मिट गए। 
 
जब यूं प्यार का सूरज निकल आया
सारे विरह के सांवले बादल छट गए। 
 
दिल में जो चढ़ा रंग बहार का संजीव
बाहों में तेरे प्यार के मौसम सिमट गए। 
 
संजीव ठाकुर

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