बलात्कार, बंद और बीजेपी

बलात्कार, बंद और बीजेपी

आज का शीर्षक किसी आने वाली फिल्म का नाम नहीं है। ये शीर्षक भारतीय राजनीति में बलात्कार को लेकर राजनीतिक दलों के चरित्र को उजागर करती एक लघुकथा का नाम है। कोलकाता में एक महिला चिकित्सक  के साथ ज्यादती के बादकी नृशंस वारदात के बाद बंगाल में भाजपा की राजनीति इतनी बढ़ गयी है कि अब मामला बंगाल बंद तक आ पहुंचा है।  इससे पहले आरक्षण के मामले पर विभिन्न संगठनों ने भारत बंद किया था। यानि राजनीति में अब यदि आरक्षण की बात करना है तो आपको बंद करना होगा और यदि महिला  उत्पीड़न की बात करना है तो आपको बंद का इस्तेमाल करना होगा। प्रतिकार के लिए शायद बंद के आव्हान से बेहतर कोई दूसरा तरीका नहीं है।

ऐसी लोक-मान्यता है कि यदि देश ,सूबा या कोई शहर बंद किया जाता है तो सत्ता प्रतिष्ठान के कान खुल जाते हैं ,आँखें खुल जाती हैं। लेकिन मेरा तजुर्बा कहता है कि ये धारणा उचित नहीं है। सत्ता प्रतिष्ठान को नींद से जगाने के लिए अब बंद कारगर हथियार नहीं रह गया है। फिर भी बंद का आव्हान किया जाता है। बीजेपी ने बंगाल  बंद का आव्हान किया तो कम से कम मुझे तो हैरानी हुई ,क्योंकि महिला उत्पीड़न अब केवल बंगाल की समस्या नहीं है। पूरे देश की समस्या है। इसलिए यदि बीजेपी को बलात्कार या क़ानून और व्यवस्था के मुद्दे  को लेकर बंद का आव्हान करना था तो उसे ' भारत बंद ' का आव्हान करना था ,क्योंकि बलात्कार केवल कोलकाता में ही नहीं हुआ। बलात्कार बीजेपी शासित राजस्थान में भी हुआ है,महाराष्ट्र के बदलापुर में भी हुआ है और मध्यप्रदेश के ग्वालियर में भी।

बलात्कार कम से कम भारत की एक राष्ट्रीय समस्या है। एनसीआरबी के आंकड़े ही सही मान लिए जाएँ तो इस देश में हर साल कम से कम 25 हजार  महिलायें बलात्कार का शिकार होतीं  है।  ये तो वे महिलाएं हैं जो साहस कर पुलिस में रिपोर्ट करने पहुंचतीं हैं,बाकी इससे   ज्यादा बलात्कार के मामले लोक -लाज,भय और असुरक्षा की वजह से रिपोर्ट ही नहीं होते। बलात्कार के मामलों को फास्ट कोर्ट में चलाने और आरोपियों की सजा दिलाने में हमारी सरकारें नाकाम रहीं है। अभियोजन अक्षम साबित  हुया है। कुल 27  फीसदी मामलों में ही आरोपियों को सजा मिली है। हमारी अदालतें तो बलात्कार के मामलों में सजायाफ्ता अपराधियों को फलरो के तहत बार-बार जमानत देने कि उदारता और दिखा  रहीं है। 

बलात्कार के बहाने से बीजेपी ने एक काम जरूर किया है कि यदि बलात्कार का आरोपी है तो उसके घरों को बुलडोज जरूर कर दिया है । बीजेपी का ये पुरुषार्थ भी विवादों की एक बड़ी वजह है। लेकिन बीजेपी भारतीय न्याय संहिता के तहत आरोपियों को दण्डित  करने   के बजाय बुल्डोजर संहिता पर ज्यादा भरोसा करती है। बलात्कार के मामलों  को लेकर हमारी देश की अदलातों का व्यवहार भी ' सिलेक्टिव्ह ' जान पड़ता है।  हमारी अदालतें कोलकाता के बलात्कार के मामले में सीबीआई को हड़काती है ,लेकिन ऐसा कितने मामलो में होता है। क्या सीबीआई हर मामले की जांच करने के लिए तैयार है ? क्या भाजपा द्वारा नियुक्त तमाम राज्यपाल   बलात्कार पीड़ितों के परिजनों से उसी तरह मिलने के लिए राजी हैं जैसा की वे कोलकाता में कर रहे है ?

बलात्कार के नाम पर बंद की राजनीति ही नहीं बल्कि राज्यपालों की राजनीती भी बंद होना चाहिए। भारत में ऐसा कौन सा राज्य है जहां बलात्कार नहीं होते। जहाँ कोलकाता से ज्यादा जघन्य वारदातें नहीं होतीं ? बलात्कार एक सामाजिक विकृति का मुद्दा है। क़ानून और व्यवस्था का मुद्दा ह, राजनीति का मुद्दा नहीं। यदि बलात्कार के मुद्दे पर बीजेपी राजनीति करती है तो भी बुरी बात है और यदि कांग्रेस करती है तो भी बुरी बात है। बुरी बात तो बुरी बात ही ह, चाहे फिर कोई भी राजनीतिक दल हो। राजनीति का मुकाबला राजनीति से हो, कार्यक्रमों से हो, नीतियों से हो न की मुकाबला करने के लिए बलात्कार जैसी घृणित  वारदात का इस्तेमाल राजनीति के लिए किया जाये।

बंगाल जीतना बीजेपी का एक पुराना सपना है, लेकिन दस साल केंद्र की सत्ता में रहने के बावजूद बीजेपी बंगाल नहीं जीत पायी है। साम, दाम, दंड और भेद से भी नहीं जीत पायी। राज्यपालों के दुरूपयोग से भी नहीं जीत पायी। अब बंगाल में बार-बार खेत होती रही बीजेपी बलात्कार के मुद्दे पर बंद का आयोजन कर बंगाल को जीतना चाहती है। लेकिन बंगाल को जीतना यदि इतना ही आसान होता तो महाबली  अमितशाह वहां परास्त न होते। बंगाल जीतने का सपना पूरा न होने से बीजेपी हताश है और हताशा में ही बीजेपी घृणित राजनीति पर उतर आयी है। बीजेपी का दर्द इसलिए और ज्यादा है कि उसे बंगाल में बार-बार एक महिला मुख्यमंत्री से पराजित होना पड़ रहा है।

बीजेपी को महिलाएं नेतृत्व करती अच्छी नहीं लगतीं, भले ही बीजेपी की सरकार ने नारी शक्ति वंदन अधिनियम संसद से पारित कराया हो। बीजेपी ने स्वर्ग जा चुकी श्रीमती सुषमा स्वराज को प्रधानमंत्री नहीं बनने दिया। उमा  भारती को घर बैठा दिया। मायावती को कहीं का नहीं छोड़ा। मेहबूबा मुफ़्ती का मुख्यमंत्री बने रहना बीजेपी को पसंद नहीं आया। कांग्रेस की चेयर पर्सन रही श्रीमती सोनिया गाँधी तक को जर्सी गाय कहकर अपने महिला विरोधी चरित्र का मुजाहिरा किया है। बंगाल में बीजेपी जीते ,जरूर जीते लेकिन किसी महिला के उत्पीड़न को औजार बनाकर नही। बीजेपी जिस तरीके से बंगाल में लड़ रही है ,जरा दक्षिण के राज्यों में भी लड़कर दिखाए। लेकिन ये हो नहीं सकता ,क्योंकि बीजेपी आखिर बीजेपी है।

आपका पता नहीं ,लेकिन मुझे हमेशा ये लगता है कि बीजेपी लोकसभा चुनाव में अपनी पराजय के दर्द से अभी तक उबरी नहीं है । जबकि  उसे अपनी पराजय  के दर्द को भुला  देना  चाहिए ,क्योंकि अंततोगत्वा देश में सत्ता के शीर्ष पर भाजपा ही है ,भले ही उसकी मांग में जेडीयू और टीडीपी से उधार लिया हुआ सिन्दूर भरा हुआ है ,लेकिन है तो बीजेपी सौभाग्यवती राजनितिक पार्टी। अब ये उसके  नेतृत्व के ऊपर है कि वो हिकमत अमली से अपनी लूली-लंगड़ी सरकार पूरे पांच साल चलाना चाहती है या बीच में ही रणछोड़ बनना चाहती है। बीजेपी को अब ये हकीकत स्वीकार कर लेना चाहिए कि भविष्य में वो 2014   या 2109  का इतिहास  तो नहीं दोहरा सकती।बीजेपी को जितना आसमान छूना था ,सो छू  चुकी है। अब कहीं की ईंट और कहीं के रोड से बीजेपी का किला महफूज रहने वाला नहीं है।  फिर चाहे रोड का नाम चम्पाई सोरेन हो या नीतीश कुमार।  
राकेश  अचल    

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