अतिवाद की अवधारणा और औपनिवेशिक विस्तारवादl 

अतिवाद की अवधारणा और औपनिवेशिक विस्तारवादl 

वर्तमान परिपेक्ष में वैश्विक स्तर पर धार्मिक अतिवाद औपनिवेशिक विस्तारवाद के कारण कई देशों के मध्य युद्ध तथा हिंसा का तांडव मचा हुआ है जो वैश्विक शांति, मानवता, सौहार्द के लिए सर्वथा बहुत ज्यादा घातक एवं भविष्य में अप्रिय परिणाम देने वाले हैं। धर्म की अवधारणा परोपकार, जनकल्याण, अहिंसा तथा मानवता को निरंतर आगे बढ़ाना है। जबकि अतिवाद किसी मान्यता विचार व अवधारणा को जबरन लागू करने की प्रक्रियागत सोच है। अतिवाद ही किसी भी विचारधारा या किसी पंथ को अति होने तक ले जाना है। अतिवाद किसी भी धार्मिक और राजनीतिक विषय में ऐसी विचारधारा के लिए प्रयुक्त होता है जो समाज की मुख्यधारा के नजरिए को स्वीकार नहीं करती है। यह एक ऐसा राजनीतिक अथवा धार्मिक सिद्धांत है जो अमर्यादित नीति का पक्षधर है तथा इसमें मध्यस्थता की कोई गुंजाइश भी नही होतीहै।
 
यह धर्म की ओर एवं कठोर मान्यताओं को लोगों पर जबरदस्ती थोपने का कार्य करता है, तथा हिंसा ,हत्या बलात्कार आदि को सर्व मान्य रूप से सही ठहराता है। भारत में धार्मिक विवाद का असर युवाओं पर सबसे ज्यादा पड़ता है क्योंकि युवा मन अपरिपक्व तथा किसी विचारधारा में ढला हुआ नहीं रहता और भारत में 65% 35 साल से कम उम्र के युवा निवासरत हैं। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश हैl स्वतंत्रता के बाद से भारत के संविधान में लोकतंत्र को सर्वोपरि स्थान दिया गया हैl देश की भौगोलिक तथा जनसंख्यात्मक विशालता में कुछ तत्व सांप्रदायिक हिंसा एवं अराजकता के परिस्थितियों के कारण उत्पन्न हो सकतें हैं, पर भारतीय लोकतंत्र की महानता एवं विशालता है कि इससे संवैधानिक भारतीय लोकतंत्र को बहुत ज्यादा फर्क नहीं पड़ता, पर यह तय है कि सांप्रदायिक हिंसा एवं धार्मिक कट्टरता से लोकतंत्र की अवधारणा थोड़ी दिग्भ्रमित जरूर होती है पर इसकी मजबूती ना तो पहले कम हुई है और ना ही भविष्य में होने की कोई गुंजाइश ही है।
 
हिंसा ,विवाद किसी भी बात का कोई हल नहीं। यह लोकतंत्र के लिए एक धब्बे के समान है। किसी भी देश में लोकतंत्र की आम धारणा आपसी सद्भाव और समभाव को लेकर आधारभूत रचनात्मक रूप से की गई है। विश्व के शांति प्रस्तावक भारत देश में हिंसा और हिंसक आंदोलन की कोई जगह नहीं एवं यह किसी धार्मिक, सामाजिक अथवा आर्थिक असहमति का परिणाम तो कतई नहीं हो सकती है।भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक,प्रजातांत्रिक स्वतंत्र राष्ट्र है।वैचारिक चिंतन, प्रभुद्धता लोकतंत्र के प्रमुख अवयव होते हैं, राष्ट्र के किसी भी नीति में सहमत और असहमत होना एक सामान्य प्रक्रिया, प्रतिक्रिया हो सकती है, और आम जनमानस का किसी मुद्दे पर सहमत होना भी एक सामान्य बात हो सकती है पर किन्ही भी परिस्थितियों में असहमति हिंसा के रूप में कतई बर्दाश्त के योग्य नहीं होनी चाहिए, विरोध का स्वरूप राष्ट्रीय संपत्ति की बर्बादी तो किसी भी काल और खंड में स्वीकार्य नहीं है।
 
यह राष्ट्र के लिए घातक और विकास की अवधारणा को अवरुद्ध करने वाला आत्मघाती कदम है।आंदोलन का स्वरूप सदैव शांति पूर्वक हो तो राष्ट्र तथा आमजन के हित में ही होगा। आंदोलनकारियों को शायद यह गुमान नहीं है कि राष्ट्रीय सरकारी संपत्ति आपके द्वारा दिए गए टैक्स के रूप में रुपयों से ही निर्मित होती है, इसे नष्ट करके आप स्वयं अपनी संपत्ति का नुकसान ही कर रहे हैं। आजादी के बाद से भारत के समक्ष कई सामाजिक आर्थिक समस्याएं आई है। अक्सर सामाजिक क्षेत्र में समस्याओं ने अर्थव्यवस्था की उत्तरोत्तर प्रगति पर अवरोध खड़े किए हैंl देश की सामाजिक विषमताओं ने समाज में कई समस्याओं को जन्म दिया है एवं आर्थिक प्रगति पर विभिन्न सोपानों में लगाम लगाई है। भारतीय समाज में विषमता एवं विविधता भारत के लिए एक बड़ी समस्या बनकर सामने खड़ी है।
 
स्वतंत्रता के पूर्व तथा स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात भारतीय समाज में विषमताएं भारत के लिए चुनौती बनकर वर्तमान में कई बाधाएं उत्पन्न कर रही हैं। आज जातिगत संघर्ष बढ़ गए हैं,जातिगत संघर्षों को राजनीतिक महत्वाकांक्षा ने बहुत क्लिष्ट बना दिया है। राजनीति सदैव महत्वाकांक्षा के बल पर जातिगत समीकरण को नए-नए रूप तथा आयाम देती आई है और सदैव समाज में वर्ग विभेद आर्थिक विभेद कर के अपना उल्लू सीधा करना मुख्य ध्येय बन चुका है। उच्च वर्ग तथा निम्न वर्ग सदैव सत्ता के संघर्ष के लिए न सिर्फ एक दूसरे का परस्पर विरोध करते है बल्कि शासन प्रशासन के विरोध में भी सदैव खड़े पाए गए हैं। सत्ता पाने की लालसा में जातीय संघर्ष, नक्सलवाद तेजी से समाज में पनपता जा रहा है। भारतीय परिपेक्ष में आज सिर्फ जाती ही नहीं धार्मिक महत्वाकांक्षा देश के समाज के समक्ष चुनौती बन गया है। भारत में हिंदू ,मुस्लिम,सिक्ख,इसाई जातीय संघर्ष ऐतिहासिक तौर पर अपनी जड़ें जमां चुका है, वर्तमान में मंदिर और मस्जिद के झगड़े देश में अशांत माहौल पैदा करने का एक बड़ा सबक बन चुके है।
 
और यही वर्ग विभेद संघर्ष भारतीय आर्थिक विकास के बीच एक बड़ा अवरोध बनकर खड़ा है। पश्चिमी विद्वान भी कहते हैं कि भारत के राष्ट्र के रूप में विकसित होने में जाति एवं धर्म ही सबसे बड़ी बाधाएं हैं जिन्हें दूर करना सर्वाधिक कठिन कार्य है क्योंकि इसकी जड़ें भारत के स्वतंत्रता के पूर्व से देश में गहराई लिए हुए हैं। जातीय वर्ग संघर्ष और भाषाई विवाद ऐसा मुद्दा रहा है जिससे लगभग एक शताब्दी तक भारत आक्रांत रहा है। आजादी के बाद से ही भाषा विवाद को लेकर कई आंदोलन हुए खासकर दक्षिण भारत राज्यों द्वारा हिंदी को राष्ट्रभाषा बनाए जाने एवं देश पर हिंदी थोपे जाने के विरोध में विरोध प्रदर्शनों को प्रोत्साहित किया गया। आज भी विभिन्न राज्यों में भाषाई विवाद एक ज्वलंत एवं संवेदनशील मुद्दा बना हुआ है, चाहे वह बंगाल हो, तमिलनाडु हो, आंध्र प्रदेश हो, उड़ीसा और महाराष्ट्र में भी भाषाई विवाद अलग-अलग स्तर पर सतह पर पाए गए हैं।
 
समान सिविल संहिता को लेकर बहुसंख्यक संविधान में आक्रोश है दूसरी तरफ अल्पसंख्यक समुदाय इसलिए डरा हुआ है कि कहीं उसकी अपनी अस्मिता एवं पहचान अस्तित्व हीन ना हो जाए। स्वतंत्रता के बाद से यह विकास की मूल धारणा थी कि पंचवर्षीय योजनाओं में वर्ग विहीन समाज में लोकतांत्रिक एवं धर्मनिरपेक्ष तरीके से समाज का आर्थिक विकास तथा रोजगार के साधन उपलब्ध हो सकेंगे। पर स्वतंत्रता के 75 साल के बाद भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में वर्ग विभेद भाषाई विवाद ने अभी भी आर्थिक विकास में कई बाधाएं उत्पन्न की है। संविधान में सदैव सकारात्मक वर्ग विभेद एवं विकास की अवधारणा को प्रमुखता से शामिल किया गया था और पंचवर्षीय योजनाओं में भी विकास को वर्ग विभेद से अलग रखकर विकास की अवधारणा को बलवती बनाया गया है।
 
सामाजिक आर्थिक तथा धार्मिक विविधता वाले समाज को विवादों से परे रख आर्थिक विकास की परिकल्पना एक कठिन और दुष्कर अभियान जरूर है पर असंभव नहीं है। और इसी की परिकल्पना को लेकर आजादी के पश्चात से पंचवर्षीय योजनाओं का प्रादुर्भाव सरकार ने समय-समय पर लागू किया है। विकास की अवधारणा में राष्ट्र की मुख्य धारा में समाज के पिछड़े वर्ग को शामिल कर उन्हें सम्मुख लाना होगा। यदि देश के पिछड़ा वर्ग और गरीब तबका विकास की मुख्यधारा से जुड़ता है तो गरीबी, भुखमरी, नक्सलवाद जैसे संकट अस्तित्व हीन हो जाएंगे और ऐसी समस्या धीरे धीरे खत्म होती जाएगी।
 
आवश्यकता यह है कि हमें राष्ट्रवाद को सर्वोपरि मानकर इस पर अमल करना होगा। फिर चाहे वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद हो या समावेशी राष्ट्रवाद हो। समाज की मुख्यधारा में राष्ट्रवाद को एक प्रमुख अस्त्र बनाकर देश की प्रगति में इसका इस्तेमाल किया जाना चाहिए। भारत में आजादी के 75 वर्ष बाद भी ब्रिटिश हुकूमत की तरह गरीबी, भूखमरी ,बेरोजगारी ,नक्सलवाद, आतंकवाद, सांप्रदायिकता,भाषावाद एवं क्षेत्रीय विघटनकारी प्रवृत्तियां सर उठाये घूम रही हैं, हम इन पर अभी तक प्रभावी नियंत्रण नहीं लगा पाए हैं। हमें इन सब विसंगतियों से ऊपर उठकर राष्ट्रीय नागरिकता एवं भारत राष्ट्र की विकास की अवधारणा को राष्ट्रवाद से जोड़कर आर्थिक विकास को एक नया आयाम देना होगा,तब जाकर भारत वैश्विक स्तर पर आर्थिक रूप से मजबूत एवं आत्मनिर्भर बन सकेगा। किसी बात का विरोध हिंसा के बिगड़े स्वरूप की तरफ शासकीय संपत्ति को नष्ट करना देश हित में नहीं।
 
संजीव ठाकुर, स्तंभकार,संकलनकर्ता, लेखक, 

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