अर्थशास्त्र का ग्रेशश्म लॉ और स्वयंभू कवि,नेता।

अर्थशास्त्र का ग्रेशश्म लॉ और स्वयंभू कवि,नेता।

एक बार प्रसिद्ध अर्थशास्त्री ग्रेशम सर से मेरे घर पधारे मैंने अभिवादन करते हुए कहा सरकार इस गरीब खाने में कैसे वे बोले भाईजी मैंने जो सिद्धांत अर्थशास्त्र में लागू किये थे वे क्या अभी भी भारत देश में प्रासंगिक हैं या यूं ही बिसार दिए गए यही जानने के लिए मैं तुम्हारे पास आया हूं मैं बोला हुजूर ना तो मैं अर्थशास्त्री हूं ना ही बहुत बड़ा ज्ञानी ,वे मुस्कुराए बोले यार तुम सो काल्ड,स्वयंभू चिंतक,लेखक,कवि तथा  व्यंगकार भी हो तो बताओ यहां उस नियम क्या हाल चल रहा है वैसे तो मैंने अपना नियम भारत जैसे विकासशील देश के लिए ही बनाया था, मैं बोला सर  यहां हम आपके बताए हुए अर्थशास्त्र के नियमों की लकीर पीटते पड़े हुए हैं कोई रास्ता ही नहीं दिखाई दे रहा है
 
आपने जो बरसों-बरस पहले अर्थशास्त्र यानी इकनॉमिक्स में जो सिद्धांत प्रतिपादित किया था कि "बेड मनी ड्राइव्स आउट गुड" यानी "बुरी मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है" यह नियम तो आज भी अर्थशास्त्र में तो लागू है ही राजनीति और साहित्य में भी पूरी तरह व्याप्त है। साहित्य को ही देख लीजिए आज के स्वयंभू कवियों, साहित्यकारो और तुकबंदीकार लोगों की भीड़ बढ़ गई अब हर कवि,लेखक और साहित्यकार अपने आप को राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कहने और समझने लगा है अपने सामने किसी भी बड़े साहित्यकार, कवि को कवि और साहित्यकार मानने को तैयार ही नहीं है।
 
वह हंसकर बोले यार तुम भी तो अपने को सो कॉल्ड राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय लिखते हो और छपते भी बहुत हो, डंके की चोट अपने को अंतरराष्ट्रीय कवि और लेखक मानते हो और खुद अपने उपर ही व्यंग्य कस रहे हो,मैं शरमाया बोला सर अपने उपर व्यंग करना ही सबसे बड़ा व्यंग होता है और अब साहित्य में तो यह हो गया है कि अपनी लाश खुद के कंधे पर ढोकर चलना पड़ता है तब जाकर आदमी कब्रस्तान जा पाता है वैसे व्यक्ति स्वयं अपने कर्मों की अच्छाई,बुराई का श्रेष्ठ आंकलन-कर्ता और निर्णायक होता है, कोई और आईना दिखाएं उससे पहले स्वयं समझ जाना चाहिए कि अपनी औकात क्या है।
 
मैं बोला सर आज अच्छे स्थापित बुद्धिजीवी और स्तरीय कवियों,साहित्यकारों ने अपनी रचनाएं अब फेसबुक व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम में भेजना ही बंद कर दिया है। अब इन छुटभैय्ये साहित्यकार और लेखकों से डर कर मैदान छोड़कर भाग चुके हैं। बड़े साहित्यकार लेखक व्यंग्यकार  यह सब त्याग कर अब केवल अपनी किताबों तक सीमित होकर रह गए हैं और वे सब भयभीत हैं कि मेहनत से लिखा हुआ उनका सत-साहित्य कोई अधकचरा कवि,लेखक अपने नाम से छपवाकर साहित्य में डंका ना पीट दे। लखनलाल,जमुनालाल,किरोड़ीलाल जयलाल जैसे कवियों की कविताएं फेसबुक, व्हाट्सएप, इंस्टाग्राम में छाई हुई हैं और अच्छी कविताओं का अकाल पड़ गया है समाज को संदेश देने वाली रचनाएं विलुप्त हो चुकी है।
 
खोजने जाएंगे तो वापस आदरणीय जयशंकर प्रसाद, महावीर प्रसाद द्विवेदी,हरिवंश राय बच्चन, मैथिली शरण गुप्त और रविन्द्र नाथ टैगोर जी की शरण मे जाकर उनकी कविताओं को गूगल में खोज कर ही पढ़नी पड़तीं हैं। आसानी से  उच्च-स्तरीय कवितायें पढ़ने को मिल ही नहीं पाती हैं। ये व्हाट्सएप और फेसबुक के हीरो कवि चुराई और कॉपी पेस्ट वाली कविताओं को इतना चलाते हैं कि जनवरी में पोस्ट की हुई कविता फिर लौटकर-लौटकर जून में आ जाती फिर यही पूरा चक्र चलता रहता हैं और इस पोस्ट को कॉपी पेस्ट करने वाले तथा कथित महान और छद्म काबिल कवि पूरी दमदारी और दरियादिली से अपना नाम लिखकर अपनी अप्रकाशित मौलिक रचना होने का दावा पेश करता है।
 
ओरिजिनल कवि बेचारा न जाने किस गांव और किस कस्बे में साहित्य में अपनी पहचान खोता हुआ परचून की दुकान चलाता हुआ नजर आएगा। पूरी तरह साहित्यिक दरिद्रता छा गई है। बस यही हाल ग्रेशम सर जी राजनीति में भी है राजनीति में सदाचार,चरित्र स्खलित  हो गयें है,राजनीति में सच्चे,सिद्धांतवादी, आदर्श पर चलने वाले शिक्षित नेताओं को  कुछ टुटपुंजिये और गेंडे जैसी मोटी चमड़ी वाले, घड़ियाल आंसू बहाने वाले आठवीं पास नेता पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा देते हैं,और सड़क छाप कल्लू ,कल्लन, कालिया टाइप के नेता सत्ता की गलियारे में तेजी से पार्षद, महापौर, विधायक, सांसद, मंत्री और इससे भी ऊपर बढ़ते चले जाते है।
 
अति आदरणीय ग्रेशम सर आपके बताए हुए सिद्धांत के अनुसार जनता पहले सड़े गले और फटे हुए नोटों को चलाने की कोशिश करती है अच्छे नोटों को तिजोरी में रखती है बस क्या है इसी तर्ज में गुंडे, मवाली, खूनी, अपराधी और जेब कतरे अपने आतंक से राजनीतिज्ञों से संबंध बनाकर  राजनीतिक पार्टियों में बड़े-बड़े ओहदे पैसों के दम पर लेकर मंत्रियों के साथ फोटो सेशन कराकर समाज में अपनी धाक और जलवे पेल देते हैं और अच्छे लोगों को घर मे रहने को मजबूर कर देते हैं। और सदाचारी लोग अपने आप को परिवार,रिश्तेदार और दोस्तों तक सीमित कर के रोज शाम घर के गार्डन में पत्नी के साथ बैठकर राजनीतिज्ञों को गाली देते हुए कहते हैं अब राजनीति शरीफों के लिए रह ही नहीं गई है
 
आज राजनीति पूरी तरह सड़ी-गली हो गई है जरा भी ध्यान देने लायक नहीं है और फिर दोनों बच्चों के साथ बिस्कुट खाते हुए उनकी बेगम साहिबा कहती है कि आप सही कह रहे हैं आप तो अपने ऑफिस में इन लोगों से दूर ही रहा करो वरना छूत की बीमारी लग जाएगी, इस तरह काबिल शिक्षित व्यक्ति अपने आप को नौकरी में पूरी जिंदगी में झोंक देता है और मुख्य राजनीतिक धारा से बाहर हो जाता है और एक सुंदर पत्नी दो अदद बच्चों और एक 2 बीएचके फ्लैट के साथ ही खुश रहने का आदी हो जाता है। यह सब वाकया सुनाने के बाद मैंने उनसे कहा माननीय महोदय  ग्रेशम सर कुछ ऐसा सिद्धांत बनाइए जिससे राजनीतिक सुचिता शुद्ध और परिष्कृत हो जाए और सब तरफ विकास और खुशहाली छा जाए,
 
इसी तरह साहित्य भी विशुद्ध हो जाए और हम हिंदी साहित्य का वैश्विक परचम पूरी दुनिया में लहरायें, सर मुस्कुराए और बोले ऐसा तो सिर्फ फिल्मों में होता है बरखुरदार तुम ऐसा करो साउथ इंडियन मूवी देखा करो और कल्पना लोक में डूब कर अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करते रहो । इतना बोलने के बाद महान अर्थशास्त्री ग्रेशम सर अपने बताए और प्रतिपादित अर्थशास्त्र के नियमों की विसंगतियां  देख तुरंत अंतर्धान हो गए।  पत्नी मुझे नींद से उठाते हुए बोली क्यों इतनी रात  नींद में बड़बड़ा कर मेरी नींद हराम कर रहे हो चुपचाप सो जाओ।
 
संजीव ठाकुर, व्यंगकार,चिंतक, लेखक

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