केरल से टूटा था 'एक देश-एक चुनाव' क्रम
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1950 में संविधान लागू होने के बाद देश में पहले आम चुनाव 1952 में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभाओं के लिए एक साथ हुए थे। यह सिलसिला 1957 के आम चुनावों में भी जारी रहा। केरल में साल 1957 के चुनावों के बाद बनी सरकार को उस समय की केंद्र सरकार ने अनुच्छेद 356 के अधीन राष्ट्रपति शासन लगाकर 31 जुलाई 1959 को बर्खास्त कर दिया था। केरल में 1957 के विधानसभा चुनावों के बाद कम्युनिस्ट नेता ई.एम.एस. नम्बूदरीपाद के नेतृत्व में भाकपा की सरकार बनी। यह विश्व की पहली लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई कम्युनिस्ट सरकार थी। केरल में 31 जुलाई 1959 से 22 फरवरी 1960 तक राष्ट्रपति शासन लागू रहा।
साल 1960 में लोकतंत्र बहाल करते हुए विधानसभा चुनाव करवाए गए। जिसमें भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के नेतृत्व वाले गठबंधन 63 सीटें जीत बहुमत हासिल किया। इन चुनावों में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी को केवल 29 सीटें मिलीं। केरल को छोड़ बाकि देश में आखिरी बार एक देश, एक चुनाव 1967 में हुए थे। देश के चौथे आम चुनाव में 520 लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र और 3,563 विधानसभा सीटें शामिल थीं। सभी राज्यों में आम चुनाव एक चरण हुए थे लेकिन यूपी में यह चार चरणों में हुए थे। 1967 से 1972 के बीच पुराने राज्यों के पुनर्गठन और नए राज्य बनने के साथ अलग अलग समय पर विधानसभा चुनाव होते रहे।
इस तरह से साल 1967 के बाद बड़े पैमाने पर लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने का सिलसिला टूट गया। उम्मीद की जा रही है संसद में मंगलवार को 'एक देश-एक चुनाव' विधेयक पेश किया जाएगा। पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति ने 'एक देश-एक चुनाव ' संबंधित 18,626 पन्नो की रिपोर्ट 14 मार्च को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को सौंप दी थी। इस उच्च स्तरीय समिति के अनुसार विशेषज्ञों के साथ व्यापक विचार-विमर्श कर यह रिपोर्ट तैयार की गई है। इस रिपोर्ट में लोकसभा, विधानसभा, नगरपालिकाओं और पंचायत चुनाव एक साथ करवाने के मुद्दे से जुड़ी सिफारिशें दी गई हैं परन्तु अभी उम्मीद यही है कि लोकसभा चुनाव और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाने पर ही फैसला लिया जाएगा।
यदि कोविंद समिति की सिफारिशे लोकसभा और राज्यसभा की मंजूरी के बाद राष्ट्रपति द्वारा हस्ताक्षर कर दिए जाती हैं तो हो सकता है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के बाद जितने भी विधानसभा चुनाव हुए या होंगे उनकी अवधि 2029 के लोकसभा चुनाव के साथ ही खत्म हो जाए। राजनीतिक दलों ने अपने विचार समिति के साथ साझा किए थे जिनमें से 32 राजनीतिक दल 'वन नेशन वन इलेक्शन' के समर्थन में थे। रिपोर्ट में कहा गया है केवल 15 राजनीतिक दलों को छोड़कर शेष 32 दलों ने न केवल साथ-साथ चुनाव प्रणाली का समर्थन किया बल्कि सीमित संसाधनों की बचत, सामाजिक तालमेल बनाए रखने और आर्थिक विकास को गति देने के लिए ये विकल्प अपनाने की ज़ोरदार वकालत की है।
लोकसभा और राज्यों के विधानसभा चुनाव एक साथ करवाने के पीछे कई तरह के तर्क दिए जाते रहे हैं। दावा किया जाता है कि इससे देश के विकास कार्यों में तेज़ी आएगी। चुनावों के लिए आदर्श आचार संहिता लागू होते ही सरकार कोई नई योजना लागू नहीं कर सकती है। आचार संहिता के दौरान नए प्रोजेक्ट की शुरुआत, नई नौकरी या नई नीतियों की घोषणा भी नहीं की जा सकती है और इससे विकास के काम पर असर पड़ता है। यह भी तर्क दिया जाता है कि एक चुनाव होने से चुनावों पर होने वाले खर्च भी कम होगा। इससे सरकारी कर्मचारियों को बार-बार चुनावी ट्यूटी से भी छुटकारा मिलेगा। देश में लोकसभा और विधानसभा चुनाव अलग मुद्दों पर होते हैं। इसलिए दोनों एक साथ होंगे तो विविधता और विभिन्न स्थितियों वाले देश में स्थानीय मुद्दे हाशिये पर चले जाएंगे।
‘एक चुनाव’ के आइडिया में तस्वीर दूर से तो अच्छी दिख सकती है, लेकिन पास से देखने पर इसमें कई कमियां दिखाई देती हैं। लोकतांत्रिक ढांचे के तहत यह आइडिया सुनने में भले ही आकर्षक लगे, लेकिन इसमें तकनीकी समस्याएं काफी हैं। देश में केंद्र और राज्य के चुनाव एक साथ हो भी जाए तब भी यह निश्चित नहीं है कि सभी सरकारें 5 साल चलेंगी ही चलेंगी। इन हालातों में यदि कोई दल या गठबंधन सरकार बनाने कि स्थिति में नही है तो सरकार गिरने पर दोबारा चुनाव करवाने होंगे नही तो राष्ट्रपति शासन लगाना पड़ेगा। एक देश- एक चुनाव का संविधान संशोधन बिल पारित कराना सरकार के लिए आसान काम नही है। संसद में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के पास दो तिहाई बहुमत नहीं है।
संविधान संशोधन के लिए विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है। विधेयक पारित करवाने के लिए सरकार के पास दोनों सदनों में दो-तिहाई बहुमत होना चाहिए और मतदान में 50 प्रतिशत से ज़्यादा वोट होने चाहिए। जबकि एनडीए की मुश्किल ये कि इंडिया गठबंधन के सभी दल इसके खिलाफ हैं। 'एक देश, एक चुनाव' के लिए सरकार दो बिल ला रही है। इनमें एक संविधान संशोधन का बिल है। लोकसभा की 543 सीटों में एनडीए के पास अभी 292 सीटें हैं। दो तिहाई बहुमत के लिए 362 का आंकड़ा जरूरी है। वहीं राज्यसभा की 245 सीटों में एनडीए के पास अभी 112 सीटें हैं, वहीं 6 मनोनीत सांसदों का भी उसे समर्थन है। जबकि विपक्ष के पास 85 सीटें है। दो तिहाई बहुमत के लिए 164 सीटें जरूरी हैं।
(नीरज शर्मा'भरथल')
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