मुस्लिम समाज की उन्नति के लिए आवश्यक है शरिया का खात्मा 

मुस्लिम समाज की उन्नति के लिए आवश्यक है शरिया का खात्मा 

उच्चतम न्यायालय ने तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के हितों को ध्यान में रखते हुए 10 जुलाई बुधवार को एक अहम फैसला सुनाया। न्यायालय ने अपने इतिहासिक फैसले में कहा कि अब तलाकशुदा मुस्लिम महिलाएं सीआरपीसी की धारा 125(1973) के तहत याचिका दायर कर अपने पति से भरण पोषण के लिए भत्ता मांग सकती हैं और साथ ही साथ उच्चतम अदालत ने अपने फैसले में यह भी स्पष्ट कह दिया है कि हर धर्म की महिलाओं के मामले में यह फैसला लागू होगा। असल में इस्लामिक कानून में तलाकशुदा मुस्लिम महिलाओं के लिए ताउम्र गुजारे भत्ते का कोई प्रावधान नही है बस इद्दत की अवधि तक ही गुजारा भत्ता मिलता है। आमतौर पर इद्दत की अवधि मात्र तीन महीने की होती है। इस्लामिक रीति-रिवाज के अनुसार जब किसी मुस्लिम महिला के पति का देहांत हो जाता है या उसे तलाक दे दिया जाता है तो ऐसी सूरत में उस महिला को तीन महीने तक शादी की इजाजत नहीं होती है। इस दौरान बस इन तीन महीनों तक ही उसे पति या पति के परिवार द्वारा गुजारा भत्ता दिया जाता है। लेकिन अब इस पूरे मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप ने मुस्लिम महिलाओं को गुजारा भत्ता लेने का हकदार बना द‍िया है। निस्संदेह उच्चतम न्यायालय का यह फैसला मुस्लिम महिलाओं के लिए बहुत अहमियत रखता है। यह अहम फैसला सुप्रीम कोर्ट की दो मैंबरी बेंच जस्टिस बी.वी.नागरत्ना और जस्टिस ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह ने सुनाया है। इस फैसले ने सभी धर्म की महिलाओं को तलाक के बाद गुजारा भत्ता पाने के लिए सीआरपीसी की धारा 125(1973) के तहत कोर्ट में याचिका दाखिल करने का अधिकार दिया है। गौरतलब है कि उच्चतम न्यायालय का यह फैसला मोहम्मद अब्दुल समद बनाम तेलंगाना राज्य और अन्य मामले से संबंधित है। जिसमें याचिकाकर्ता अब्दुल समद ने अपनी पूर्व पत्नी के भरण-पोषण में मामले में तेलंगाना कोर्ट के फैसलें को चुनौती देते हुए याचिका दायर की थी। अब्दुल समद ने अपनी पत्नी से 2017 में तलाक ले लिया था। पत्नी के मुकदमा दायर करने पर तेलांगना के एक फैम‍िली कोर्ट ने अब्दुल समद को अपनी पूर्व पत्नी को 20000 रुपये प्रति माह का अंतरिम भरण-पोषण देने का निर्देश दिया था। मोहम्‍मद अब्‍दुल ने इस फैसले को तेलंगाना हाईकोर्ट में चुनौती दी और दलील दी क‍ि उसका अपनी पत्नी से तलाक मुस्लिम पर्सनल लॉ के अनुसार हुआ था। याचिकाकर्ता समद ने अपनी याचिका में कहा कि तलाकशुदा मुस्लिम महिला मुस्लिम ला अधिनियम 1986 के मद्देनजर सीआरपीसी धारा 125 के तहत किसी भी गुजारा भत्ता का दावा करने की हकदार नहीं है। इसके बाद हाईकोर्ट ने भरण-पोषण को घटाकर 10,000 रुपये प्रति माह कर दिया। इस फैसले के बाद याचिकाकर्ता पति ने हाईकोर्ट के फैसले को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। इस मुकदमे ने कोर्ट के सामने सबसे बड़ा सवाल यह खड़ा कर दिया कि कोर्ट मुस्लिम महिला अधिनियम को प्राथमिकता दे या फिर सीआरपीसी की धारा 125 को, ऐसे में उच्चतम न्यायालय ने भारत की सेकुलर न्याय प्रणाली को आगे रखते हुए फैसला मुस्लिम महिला के पक्ष में सुनाया। सीआरपीसी की धारा 125(1973) के तहत भारतीय पुरुष अपनी पत्नी, बच्चों, माता और पिता को गुजारा भत्ता देने के लिए बाध्य है यदि उनके पास आजीविका का कोई साधन नहीं है। इसमें कोई शक नही मुस्लिम पर्सनल लाॅ यानि शरिया कानून में महिलाओं के अधिकार बहुत ही सीमित हैं। इसी लिए ज्यादातर मुस्लिम पुरुष इसकी वकालत करते हुए इन्हें सही बताते हैं क्यों कि यह कानून इन्हें कई शादियों की, आसान तलाक की, तलाक के बाद गुजारा भत्ता ना देना आदि की इजाजत देता है। भारत में शरिया कानून ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लाॅ बोर्ड की देख रेख में लागू किए जाते हैं। भारत में शरिया की शुरुआत आधिकारिक तौर पर 1937 में हुई यानी कि आजादी से 10 साल पहले। उस समय एक कानून लाया गया जिसका नाम मुस्लिम पर्सनल लॉ एपलिकेशन एक्ट रखा गया। इसे आप शरीयत एक्ट 1937 भी कह सकते हैं। अंग्रेजों की इन कानूनो को लाने के पीछे की मंशा स्पष्ट थी। इन कानूनों को स्वीकृति दे वो चाहते थे कि भारत में अलग अलग धर्मों के बीच खाई गहरी से गहरी हो ताकि लोगो के बीच का भाईचारा खत्म हो। भारत के सभी मुसलमानों के लिए इस्लामिक कानून लागू हो इसी उदेश्य के साथ ये लाया गया था। आजादी के बहुत समय बाद ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ऐसे समय बनाया गया था जब सरकार समानांतर कानून के जरिये भारतीय मुसलमानों पर लागू होने वाले शरिया कानून को खत्म करने की कोशिश कर रही थी, तब दत्तक ग्रहण विधेयक संसद में पेश किया गया था। तत्कालीन केंद्रीय कानून मंत्री एच.आर गोखले ने विधेयक को यूसीसी की दिशा में पहला कदम बताया था। इस के बाद तब के उलेमा, मुस्लिम नेताओं और कई मुस्लिम संगठनों ने भारतीय मुस्लिम समुदाय को बहकाया कि इससे भारत में मुस्लिम समुदाय कमजोर होगा और मुस्लिम वजूद को खतरा उत्पन्न होगा। जब कि ऐसी कोई स्थिति भविष्य में बनने वाली नही थी परन्तु जनता तो जनता है नेताओ के उकसावे में गलत या ठीक की जांच किए बिना बातों में आ अपने ही उन्नति के मार्ग को कमजोर करना इनकी आदत है। अपने दकियानूसी कानूनों को बचाने के लिए खिलाफत आंदोलन के बाद देश के इतिहास में पहली बार भारतीय मुस्लिम समुदाय के लोग और संगठन मुस्लिम पर्सनल लॉ की सुरक्षा के लिए एक मंच पर इकट्ठा हुए। इसके लिए पहली बैठक सैयद शाह मिन्नतुल्लाह रहमानी, अमीर शरीयत, कारी मोहम्मद तैयब, दारुल उलूम, देवबंद आदि की पहल पर देवबंद में बुलाई गई थी। बैठक में मुंबई में एक सामान्य प्रतिनिधि सम्मेलन करने का फैसला हुआ। मुंबई में 27-28 दिसंबर 1972 को सम्मेलन आयोजित हुआ। सम्‍मेलन में सभी की सहमति से ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड का गठन करने का फैसला लिया गया। बोर्ड की स्थापना 7 अप्रैल 1973 को हुई थी। आज भी मुस्लिमों में शादी, तलाक, पारिवारिक मसलों पर मुस्लिम पर्सनल लॉ एपलिकेशन एक्ट के तहत फैसले लिए जाते हैं यानी कि इस एक शरिया कानून का इस्लाम पर गहरा प्रभाव है परन्तु पूरा विश्व यह जानता और मानता है कि भारत एक सेकुलर देश है जिसका सब भारतवासियों के लिए एक सविंधान है। ऐसे में एक देश में सभी धर्म के लोगों पर एक ही कानून लागू होना चाहिए। इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड जिन शरिया कानूनों का संरक्षण और समर्थन करता है अब उन्हे पूरी तरह से खत्म करना समय की मांग भी है एवंम देश की एकता, अखण्डता और मुस्लिम समाज की उन्नति के लिए यह आवश्यक भी है।
                                                                                                               
   (नीरज शर्मा'भरथल') 

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