बूढ़े मां-बाप के जीने का सम्बल हैं शहीद के वीरता मैडल! 

एक शहीद के वीरता मैडल्स का कौन हो असली हकदार ? 

बूढ़े मां-बाप के जीने का सम्बल हैं शहीद के वीरता मैडल! 

शहीद कैप्टन अंशुमान को कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया है लेकिन उनकी शहादत को मिले इस सम्मान के असली हक को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं और ये सवाल वास्तव में एक बेटे की शहादत पर मिलने वाले वीरता मैडल्स पर किसका हक हो मां बाप और विधवा या अन्य? को गंभीरता से सामने लाता है। शहीद अंशुमान के माता पिता का कहना है कि उनकी बहू मायके चली गई हैं। वे सरकार से मांग कर रहे हैं कि एनओके (नेक्स्ट ऑफ किन यानी निकटतम परिजन) के नियमों में बदलाव किया जाए। आपको बता दें कि पिछले साल 19 जुलाई 2023 को सियाचिन में शहीद हुए कैप्टन अंशुमान सिंह को अभी हाल ही में राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया। यह सम्मान उनकी पत्‍नी स्‍मृति और मां मंजू सिंह ने ग्रहण किया।इस कार्यक्रम के बाद अंशुमान की पत्नी स्मृति का एक वीडियो भी सामने आया जिसमें वह बता रही हैं कि कैसे उनकी अंशुमान सिंह से मुलाकात हुई और शादी के मात्र पांच महीने बाद ही वह विधवा हो गईं।
 
लेकिन समारोह के कुछ दिन बाद ही अंशुमान सिंह के माता-पिता का दर्द सामने आया है. उन्होंने कहा है कि शहीद अंशुमान सिंह की पत्नी स्मृति पति अंशुमान की फोटो एल्बम, कपड़े और अन्य यादों के साथ सरकार के द्वारा दिए गए कीर्ति चक्र को लेकर अपने घर गुरदासपुर चली गई हैं। आरोपों के अनुसार, वह न सिर्फ माता-पिता के शहीद बेटे का मेडल लेकर गईं बल्कि उसके दस्तावेजों में दर्ज स्थायी पते को भी बदलवाकर अपने घर गुरदासपुर का करवा दिया है। सेना सूत्रों के मुताबिक इंश्योरेंस की राशि में से 50 लाख रुपये शहीद अंशुमान की मां को और 50 लाख रुपये की राशि उनकी पत्नी को मिली है। यूपी सरकार से जो आर्थिक मदद मिली उसका 35 लाख रुपये शहीद की पत्नी और 15 लाख रुपये शहीद की मां को मिला है।अंशुमान के पिता निकटतम परिजन नियमों में बदलाव चाहते हैं। शहीद अंशुमान के पिता रवि प्रताप सिंह ने कहा, 'बेटे को उसके अदम्य साहस के लिए कीर्ति चक्र मिला तो नियम था कि मां और पत्नी दोनों यह सम्मान लेने के लिए जाते हैं।
 
अंशुमान की मां भी साथ गई थीं।राष्ट्रपति ने मेरे बेटे की शहादत पर कीर्ति चक्र दिया लेकिन मैं तो उसको एक बार छू भी नहीं पाया.'कैप्टन अंशुमान के पिता ने आगे कहा कि वे एनओके यानि 'निकटतम परिजन' नियमों में बदलाव चाहते हैं, क्योंकि उनकी बहू स्मृति सिंह अब उनके साथ नहीं रहती है.उन्होंने कहा कि एनओके का जो निर्धारित मापदंड है वह ठीक नहीं है. इसे लेकर उन्होंने रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से लेकर नेता प्रतिपक्ष राहुल गांधी से तक बात की है। उनके इस बयान के बाद से ही एक बार इस एनओके के नियमों को लेकर चर्चा होने लगी है. रवि प्रताप सिंह से पहले भी कई शहीद परिजन भी इन नियमों में बदलाव की मांग कर चुके हैं.एनओके का अर्थ व्यक्ति के जीवनसाथी, निकटतम रिश्तेदार, परिवार के सदस्य या कानूनी अभिभावक से है. जब कोई   युवक सेना में भर्ती होता है तो उसके माता-पिता या अभिभावकों को निकटतम परिजन के रूप में नामांकित किया जाता है. सेना के नियमों के अनुसार, जब कोई कैडेट या अधिकारी शादी करता है, तो उसके माता-पिता के बजाय उसके जीवनसाथी का नाम उसके निकटतम रिश्तेदार  के रूप में नामांकित किया जाता है।
 
नियमों के अनुसार, अगर सेवा के दौरान किसी जवान/ऑफिसर को कुछ हो जाता है तो अनुग्रह राशि से लेकर  तमाम सैन्य सुविधाएं निकटतम परिजन को दी जाती हैं. यानि अगर सैनिक शादीशुदा है तो सारी धनराशि पत्नी को दी जाती है और अगर शादीशुदा नहीं है तो फिर यह अनुग्रह राशि मां-बाप को दी जाती है. रवि प्रताप सिंह इन्हीं नियमों में बदलाव चाहते हैं जिससे शहीद की विधवा के अलावा मां-बाप को भी अनुग्रह राशि का या मदद का हिस्सा मिले। अगर सैनिक शादीशुदा थे तो एनओके पत्नी ही होंगी। सवाल है कि ऐसी स्थिति में माता पिता को क्या मिलता है? 
कई मामलों में ऐसा सामने आया है जहां शहीद के परिजनों, विशेषकर मां-बाप ने आरोप लगाया है कि बेटे की शहादत के बाद जो भी पैसा सरकार या सेना द्वारा दिया गया, उसे बहू लेकर चली गईं या फिर उसने दूसरी शादी कर ली। हालांकि शहीदों को राज्य सरकारों द्वारा दी जाने वाली आर्थिक मदद को लेकर कई राज्य सरकारों ने अपने स्तर पर दी जाने वाली मदद के नियमों में बदलाव किए हैं जिनमें शहीद की पत्नी के अलावा मां-बाप का भी ध्यान रखा गया है। 
 
मध्य प्रदेश की बीजेपी सरकार के नए नियमों के मुताबिक, सेना, अर्धसैनिक बलों और पुलिस बल सहित सुरक्षाकर्मियों की शहादत की स्थिति में परिवार को दी जाने वाली वित्तीय सहायता शहीद के की पत्नी और माता-पिता के बीच बराबर बांटी जाएगी, यानि 50 फीसदी राशि पत्नी और 50 फीसदी धनराशि मां-बाप को दी जाएगी. पहले 100 फीसदी राशि केवल पत्नी को मिलती थी। इसी तरह उत्तर प्रदेश में यूपी की योगी सरकार ने शहीद सैनिकों के आश्रितों को लेकर फैसला लिया था।जून 2020 में सरकार ने केन्द्रीय एवं प्रदेशों के अर्द्ध सैन्यबलों तथा भारतीय सेना के तीनों अंगों में शहीद होने वाले प्रदेश के सैनिक परिवार दी जाने वाली 25 लाख रुपये की अनुग्रह राशि को बढ़ाकर 50 लाख रुपये कर दिया था. इसमें फैसला लिया गया है कि अगर शहीद के माता-पिता जीवित हैं तो उन्हें भी यह सहायता मिलेगी जिसमें से 35 लाख शहीद की पत्नी तथा 15 लाख मां-बाप को दिए जाते हैं. अगर मां-बाप जीवित नहीं हैं तो उस स्थित में पूरी धनराशि पत्नी को दी जाती है।
 
हरियाणा सरकार ने 2017 में एक अहम फैसला लेते हुए कहा था कि शहीद होने के बाद जवान की पत्नी को जो 100 फीसदी सम्मान राशि दी जाती थी उसका एक हिस्सा मां-बाप को भी दिया जाएगा. हरियाणा सरकार के संशोधित मानदंडों के अनुसार कुल सहायता राशि में से 70 प्रतिशत अनुग्रह अनुदान शहीद की विधवा और बच्चों दी जाती है बची हुई 30 फीसदी धनराशि शहीद के माता-पिता को दी जाती है.यदि माता-पिता नहीं हैं तो यह सहायता जारी शहीद की विधवा औऱ बच्चों को दी जाती है. इन राज्यों के अलावा उत्तराखंड और राजस्थान जैसे राज्य भी अपने स्तर पर शहीद के माता-पिता को आर्थिक मदद देते हैं।
ऐसा भी देखने को मिला है कि बेहद गरीब परिवार के इकलौते बेटे के शहीद होने पर अनुग्रह राशि विधवा पत्नी ले कर मायके चली गई जब कि बूढ़े माता पिता और शादी योग्य बहिन लाचारी का जीवन जीने के लिए रोते रहे गई। ऐसे एक नहीं अनेक मामलों की कड़ी है।
 
दरअसल समय के साथ साथ पति के परिवार के प्रति संवेदना और कर्तव्य  बोध का निरंतर ह्रास हो रहा है आज की पीढ़ी अपने सुखी जीवन को महत्व देती है ऐसे हालात में अपने अभावों भरे जीवन में तन पेट काट कर शिक्षित कर देश की सेवा के लिए अपने जिगर के टुकड़े को सौंपने वाले मां-बाप बहिन और परिवार के भी जीवन की बहुत सारी जरूरत एक सैनिक बेटे की  तनख्वाह पर टिकी होती है लेकिन किसी आकस्मिक परिस्थिति में ऐसे परिवार पर विपदा का पहाड़ टूट जाता है खासकर तब जब विधवा पत्नी अनुग्रह राशि समेट कर अनाथ हुए बच्चों समेत मायके का रुख कर लेतीं हैं और चंद महीनों बाद ही नए जीवन साथी के साथ अपनी दुनिया बसा लेती हैं। यहां तक कि शहीद पति के बच्चों को की बार नाना मामा पालते हैं और दादी बाबा आंसू बहाने के लिए मजबूर होते है क्योंकि कानून उन्हें संरक्षण नहीं देता है। यह परिस्थितियां व्यवहारिक सच्चाई हैं जिन्हें सिरे से खारिज नहीं किया जा सकता है।
 
जरा सोचिए उन मां बाप की ह्रदय की वेदना जिन्होंने अपने सपूत को देश की सुरक्षा के लिए बलिदान कर दिया और वह अपने सपूत की शहादत के अवार्ड कीर्तिचक्र को अपने बेटे की स्मृति बतौर संजोने से भी वंचित कर दिए गए। क्या यह सच में अनुचित नहीं है? एक माता पिता को यदि उनके देश के लिए शहीद हुए बेटे की शहादत का अवार्ड भी अपने शेष जीवन के संबल के लिए संजो कर रखने और उस पर गर्व व गौरव महसूस करने का हक होना ही चाहिए और यदि विधवा पत्नी और मां बाप दोनों ऐसे अवार्ड पर हक जताऐं तो दोनों को ऐसे अवार्ड की प्रतिकृति सौंप कर मूल अवार्ड को शहीद की बटालियन को सौंप देना चाहिए। इस समाधान से किसी की भावना भी आहत नहीं होंगी और बटालियन को भी प्रेरणा मिलती रहेगी।
 
मनोज कुमार अग्रवाल 
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)

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