संजीव-नी|

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कैलेंडर चुप क्यों है,

चिथडी दीवारों  पर,

रूआंसे उधडे पलस्तर,

और केलेंडर

आमने सामने,

एक दूसरे को फूटी आंखों भी

नहीं सुहाते,

साथ रहनारोनाखासना,

मजबूरी थे सब,

वैसे भी दीवारों को

अस्थमा हो गया था,

कभी सांस उखड़ती,

रह-रहकर खांसी आती,

एक तरफ का कोना फिर

नंग धड़ंग हो जाता,

अपने निवस्त्र होने पर

दीवार में शर्माना छोड़ दिया था,

खिड़की के बाहर बरबस  

हंसते देखा था लोगों को उसने,

वैसे भी बेपर्दा दीवार ने

अपनी पैर की मोच पर

कभी ध्यान नहीं दिया,

भले ही एक टांग पर

तिरछा होकर खड़े रहना पड़े,

उस तरफ उसके अपने

निवस्त्र उभरे शारीर पर

किसी ने कई बरस पुराना

कैलेंडर टांग दिया था,

उसे लगा शराफत अभी भी जिंदा है,

मूसलाधार बारिश की थपेड नें 

दीवार के ऊपरी हिस्से को  पपड़ी दार

भुसभुसे  पलस्तर से

अलग-थलग कर दिया था,

दीवार का ऊपरी हिस्सा

फिर खुल गया,

गोलाकार खुले पलस्तर से उधडे

शारीर के अंग और बड़े हो गए थे,

कैलेंडर पलस्तर के साथ पड़ा

पड़ा किनारे से घूर रहा था,

उसका मुंह भी कई

जगह से नुच गया था,

पर खून के निशान कहीं नहीं थे,

कलेजे  की चोट से चुप था,

दीवार का पूरा का पूरा

शरीर सब का सब

कैलेंडर के सामने निर्वस्त्र

खड़े थे,

और कैलेंडर लटका लटका चुप था,

चोट खाया शरीर कई जग से

कट फट गया था,

तेज हवा में  अब फड़फड़ाया भी नहीं,

दीवार की दशा पर

कैलेंडर चुप था|

उधडी पलस्तर को लगा,

कैलेंडर चुप क्यों है

समय भी चुप, शांत हो गया,

संजीव ठाकुर,रायपुर

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