संजीवनी।
कविता,
On
क्रूरता की परिणति युद्ध।
युद्ध के बाद बड़ा पश्चाताप
ही परिणति होती है,
अक्सर होता है ऐसा
देश या इंसान
दुख और पश्चाताप में
डूब जाता है हमेशा के लिए।
युद्ध, हिंसा,
किसी समस्या का हल नहीं।
फिर क्यों लोग करते हैं
इतना ज्यादा भरोसा।
युद्ध में जीत,
जीत नहीं होती।
बलपूर्वक हिंसा से
किसी से जीतना
वीरता नहीं होती,
क्रूरता की परिणति
मुस्कान और शांति,
सहजता नहीं हो सकती,
मानवीय सभ्यता ,शिक्षा
और संस्कृति ,संस्कारों
का प्रतिफल
परायों का हिस्सा,
जीवन हरण है,
तो अहिंसक,
अशिक्षित मानव
प्रेम ,शांति और
सौहाद्र का संदेशवाहक
सौगुना भला होता है,
इतने विकासवान होकर,
चंद्रमा की सतह को छूकर,
नवीन जिंदगी की
खोज में गया मानव,
पृथ्वी पर मानव ही
मानव के
रक्त का प्यासा हो जाए,
चांद की आंखों में भी
खून के आंसू आ जाए।
नागासाकी ,हिरोशिमा पर
परमाणु बमों से
लाखों जान चली गई,
हाथों में केवल पछतावा
पश्चाताप ही रह गए।
अब तो यूक्रेन की
सड़कों, दीवारों
हरे हरे वृक्षों,
नवजात पुष्प की
कलियों ,नन्हें-नन्हें पत्तों
रक्त की धार बहती दिखती है,
फूल और फल भी
खून से रक्तिम दिखते हैं।
यूक्रेन के हर शहर में
लाशों के ढेर
कितना अमानवीय।
नहीं यह मानवता नहीं,
यह विकास नहीं,
यह शिक्षा नहीं,
यह संस्कृति और
संस्कार भी नहीं।
अहम है
अहंकार
की पुकार है,
विस्तार वाद कि सनक है।
धिक्कार है
ऐसी सोच पर
उस मानव जाति पर
जिसने
मानवीय जीवन के
अंत को चित्कार की
ऐसी मर्माहत
परिणती दी।
संजीव ठाकुर,
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