संजीवनी।

कविता,

संजीवनी।

बंधन का इरादा है वफा का गांव चाहिए। 
 
बला की धूप है सर पर घनेरी छांव चाहिए,
थके मुसाफिर को सुकून का गांव चाहिए। 
 
दुआएं निकली है दिल से तो पूरी होंगी,
बंधन का इरादा है वफा का गांव चाहिए। 
 
यही रुक जाती है आकर मासूमियत यारों,
मुझे ममता के आंचल की छांव चाहिए। 
 
करूंगा आखरी दम तक कोशिश जीत जाने की,
मुमकिन तो है मगर मुझको जिंदगी के पांव चाहिए। 
 
बिछें हैं राह में कांटे ही कांटे मंजिल तक मेरी,
करिए कोशिश उसके लिए हौसले के दाँव चाहिए। 
 
बहुत मुश्किलों से मिलता सही लक्ष्य जिंदगी में,
बस छूने के लिए बुजुर्गों के पांव चाहिए। 
 
मन में रख विस्वास हिम्मत न हार संजीव,
जिंदगी की वैतरणी पार करने पवित्र नाँव चाहिए। 
 
संजीव ठाकुर

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