ताली और थाली बजाने का दिन है आज

ताली और थाली बजाने का दिन है आज

जम्मू-काश्मीर में 16  अक्टूबर 2024 को चुनी हुई सरकार का गठन होने जा रहा है ,इसके बारह घंटे पहले वहां  से राष्ट्रपति शासन का समापन भी हो गया,इसीलिए बुधवार 16 अक्टूबर की तारीख उसी तरह से इतिहास में दर्ज की जाएगी जिस तरह इस सूबे को तीन टुकड़ों में बाँटने की तारीख दर्ज की गयी थी। जम्मू-कश्मीर में लोकतांत्र बहाली के इस मौके पर स्थानीय जनता के साथ ही पूरे देश को ताली और थाली बजाकर अपनी ख़ुशी का इजहार करना चाहिए।

दरसल जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र बहाली के लिए ताली और थाली बजाने का आव्हान करना तो माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी को था ,लेकिन वे अपनी दूसरी व्यवस्तताओं के चलते देश को सम्बोधित करना भूल गए । उन्हें भूलने की पुरानी आदत है ।  वे जनता से दस साल में किये गए तमाम  वादे भूल गए, अच्छे दिन लाना भूल गए, कालाधन लाना भूल गए। लेकिन वे प्रधानमंत्री हैं इसलिए उनकी सौ भूलें क़ाबिले माफी हैं।

बीते रोज ही जम्मू कश्मीर पर विधानसभा चुनावों की प्रक्रिया पूरी होने के बाद राष्ट्रपति शासन को हटा लिया गया है। केंद्रीय गृह मंत्री ने इस संबंध में एक आदेश जारी किया है। शुक्रवार को नेशनल कांफ्रेंस के नेता उमर अब्दुल्ला ने सरकार ने बनाने का दावा पेश किया था। उन्होंने राजभवन में उपराज्यपाल मनोज सिन्हा से भेंट की थी। इस दौरान उमर अब्दुल्ला ने उनके समक्ष सरकार बनाने का दावा पेश किया था। इसमें उन्होंने सहयोगियों दलों से मिली समर्थन की चिटि्ठयां भी सौंपी थीं। उन्होंने 54 विधायकों के समर्थन होने का दावा किया है।शुरू में मुझे लगा था कि  डॉ फारुख अब्दुल्ला साहब खुद मुख्यमंत्री पद की शपथ लेंगे ,लेकिन मै और मेरे कयास गलत निकले ।  अब  उमर   अब्दुल्ला साहब ही मुख्यमंत्री बनेंगे। उन्हें बनना भी चाहिये ।

 वे खंडित सूबे की अवाम के,नई जनरेशन के करीब हैं। और उम्मीद है कि  उन्हें दिल्ली के अरविंद केजरीवाल की तरह केंद्र से रोज-रोज टकराना नहीं पडेगा। जम्मू-काश्मीर की विधानसभा उस जीव के समान है जिसके दांत और नाखून पहले ही क़तर दिए गए हैं।  पांच साल पहले जम्मू- कश्मीर जिस तरह से एक पूर्ण  सूबा था,वैसा अब नहीं  है । अब तमाम मुद्दों और विषयों पर नव निर्वाचित   सरकार की नहीं बल्कि केंद्र सरकार की चलेगी।  दिल्ली से जम्मू-कश्मीर के विकास और जन कल्याण की योजनाओं को चलाने के लिए उमर अब्दुल्ला साहब को दिल्ली की तरफ ताकना ही पडेगा।  वे यदि ईडी और सीबीआई से बचकर केंद्र के साथ तालमेल करने में कामयाब हुए तो मुमकिन हैकि अगले आम चुनाव से पहले जम्मू-काश्मीर को राज्य का दर्जा वापस मिल जाये ,अन्यथा जम्मू-कश्मीर एक लंगड़े घोड़े की तरह ही रह जाएगा।

हम बचपन से पढ़ते आए हैं कि  जम्मू-कश्मीर इस मुल्क के माथे का मुकुट है। यहां की जाफरान जब महकती है तो पूरा देश महकने लगता है ,लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यहां की जाफरान में जाफरनी सुगंध कम ,बारूदी गंध ज्यादा आने लगी थी।  भाजपा ने शुरू के वर्षों में यहां पीडीपी के साथ सरकार चलने की कोशिश की और आतंकवाद को नाथने का प्रयास किया किन्तु अपेक्षित कामयाबी नहीं मिली और सूबे की गठबंधन की सरकार गिर गयी और फिर योजनाबद्ध तरीके से जम्मू-काश्मीर पर राष्ट्रपति शासन थोप दिया गया। राष्ट्रपति शासन में भी केंद्र सरकार जम्मू-काश्मीर में आतंकवाद को नेस्तनाबूद नहीं कर पायी। जम्मू-काश्मीर के विस्थापितों  को वापस नहीं ला सकी। निर्वाचित सरकार के लिए  यही दो काम सबसे बड़ी चुनौती हैं।

जम्मू-काश्मीर में यदि केंद्र की भाजपा के गठबंधन की सरकार ने दिल्ली के साथ किये जा रहे व्यवहार को ही दुहराने की गलती की तो आप तय मानिये कि  यहां विधानसभा चुनाव कराने का कोई लाभ न स्थानीय जनता को मिलेगा और न  देश को। क्योंकि दिल्ली और जम्मू-कश्मीर की भौगौलिक   स्थितियों और मुद्दों में जमीन -आसमान का फर्क है। जम्मू-कश्मीर में जो सरकार बनने जा रही  है वो दक्ष राजनीतिक दलों की सरकार है।  उसे कोई प्रशासनिक अधिकारी नहीं बल्कि अनुभवी राजनेता चला रहे हैं। केंद्र की सरकार यदि घाटी की सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का पाप करेगी तो उसे ये भारी पड़ेगा , यहां आपरेशन लोटस के लिए कम ही गुंजाईश है ,हालाँकि  केंद्र सरकार ने इसके लिए इंतजाम चुनाव से पहले ही कर रखे हैं।

आपको याद होगा कि जम्मू कश्मीर विधानसभा चुनावों के लिए नेशनल कांफ्रेंस ने कांग्रेस  से  गठबंधन किया था। नेशनल कांफ्रेंस को 90 सदस्यों वाली विधानसभा में 42 और कांग्रेस को छह सीटों पर जीत मिली है।चूंकि केंद्र  सरकार और माननीय प्रधानमंत्री के सिर से कांग्रेस और राहुल गांधी का भूत उतरने का नाम नहीं ले रहा है इसीलिए मुझे लगातार आशंका  है कि  यहां ताली-थाली बजना बहुत दूर की बात है। केंद्र की कोशिश होगी कि जितनी जल्दी मुमकिन हो नेशनल कांफ्रेंस का कांग्रेस से समझौता समाप्त हो और उमर अब्दुल्ला साहब भाजपा के साथ गठबंधन कर सरकार चलाएं।  उम्र अब्दुल्ला ऐसा कर भी सकते है।  सूबे की भलाई कि नाम पर उनके लिए ऐसा करना आसान भी है। खैर आगे जो होगा सो देखा जाएगा,लेकिन अभी तो सब खुश हैं कि  जम्मू-काश्मीर में एक बार फिर लोकतंत्र की बहाली हुई है।  

हम सूबे की जनता को मुबारकबाद देते हैं और उम्मीद करते हैं के  अब इस खंडित सूबे में जम्मू-कश्मीर में  14  वीं मर्तबा राष्ट्र्पति शासन लागू न किया जाये।  इस सूबे में पहली  बारराष्ट्रपति शासन कांग्रेस ने 1977  में लागू किया था। 1977  और 1986  में राष्ट्रपति शासन की वजह कांग्रेस खुद थी। 1977  में कांग्रेस ने तत्कालीन अब्दुल्ला सरकार से अपना समर्थन  वापस लिया थ। 1986  में भी कांग्रेस की वजह से ही राष्ट्रपति शासन लगा था, उस समय शायद जीएम शाह सरकार से कांग्रेस ने स्मार्थन वापस लिया थ।  

जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रपति शासन की सबसे लम्बी अवधि 1990  में लागू किये गए राष्ट्रपति शासन की थ।  तब राष्ट्रपति शासन पूरे 7  साल चला था ।इस तरह जम्मू-कश्मीर के साथ कांग्रेस द्वारा किये गए गुनाहों की फेहरिश्त भी लम्बी है।   भाजपा सरकार द्वारा लगाया गया राष्ट्रपति शासन 5 साल में ही हटा लिया गया ।हालाँकि भाजपा ने कांग्रेस से भी बड़ा पाप इस सूबे के तीन टुकड़े  कर किया है।  वर्ष   2002 ,2008 ,2015  और 2016   ,2018  में भी राष्ट्रपति शासन से गुजरे जम्मू-कश्मीर ने बहुत खुछ सीखा है।  

राकेश अचल 

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